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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा
देवता - हरिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-३२
आ त्वा॑ ह॒र्यन्तं॑ प्र॒युजो॒ जना॑नां॒ रथे॑ वहन्तु॒ हरि॑शिप्रमिन्द्र। पिबा॒ यथा॒ प्रति॑भृतस्य॒ मध्वो॒ हर्य॑न्य॒ज्ञं स॑ध॒मादे॒ दशो॑णिम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ह॒र्यन्त॑म् । प्र॒ऽयुज॑: । जना॑नाम् । रथे॑ । व॒ह॒न्तु॒ । हरि॑ऽशिप्रम् । इ॒न्द्र॒ ॥ पिब॑ । यथा॑ । प्रति॑ऽभृतस्य । मध्व॑: । हय॑न् । य॒ज्ञम् । स॒ध॒ऽमादे॑ । दश॑ऽश्रोणिम् ॥३२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा हर्यन्तं प्रयुजो जनानां रथे वहन्तु हरिशिप्रमिन्द्र। पिबा यथा प्रतिभृतस्य मध्वो हर्यन्यज्ञं सधमादे दशोणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । हर्यन्तम् । प्रऽयुज: । जनानाम् । रथे । वहन्तु । हरिऽशिप्रम् । इन्द्र ॥ पिब । यथा । प्रतिऽभृतस्य । मध्व: । हयन् । यज्ञम् । सधऽमादे । दशऽश्रोणिम् ॥३२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (जनानाम्) उपासकजनों के (प्रयुजः) स्तुति-प्रयोग, (हर्यन्तम्) कामनावाले तथा (हरिशिप्रम्) मनोहारी ज्योतिवाले (त्वा) आपको, (रथे) उपासकजनों के शरीर-रथों में (आ वहन्तु) उनके स्वामीरूप में आवाहन करें, प्रार्थनाएँ करें कि आप ही हमारे शरीर-रथों के प्रेरक हों। हे परमेश्वर! (दशोणिम्) जिस उपासना-यज्ञ में दस इन्द्रियों की दस दुर्वासनाएँ न्यून हो चुकी हैं, क्षीण हो चुकी हैं, उस (यज्ञम्) उपासना-यज्ञ को (हर्यन्) चाहते हुए आप, (सधमादे) पारस्परिक-प्रसन्नता के निमित्त आप (प्रतिभृतस्य) प्रस्तुत (मध्वः) मधुर भक्तिरस का (यथा) यथातथा (पिब) ग्रहण कीजिए।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह है कि आप मधुर भक्तिरस के ग्रहण द्वारा प्रसन्न हूजिए, और हम आपके आनन्दरस द्वारा प्रसन्न हों। शिप्रम्=शिपयः=रश्मयः+र (=वाला)। दशोणिम्=दश+ऊन परिहाणे।]