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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
अ॒प्सु धू॒तस्य॑ हरिवः॒ पिबे॒ह नृभिः॑ सु॒तस्य॑ ज॒ठरं॑ पृणस्व। मि॑मि॒क्षुर्यमद्र॑य इन्द्र॒ तुभ्यं॒ तेभि॑र्वर्धस्व॒ मद॑मुक्थवाहः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्ऽसु । धू॒तस्य॑ । ह॒रि॒ऽव॒: । पिब॑ । इ॒ह । नृऽभि॑: । सु॒तस्य॑ । ज॒ठर॑म् । पृ॒ण॒स्व॒ ॥ मि॒मि॒क्षु: । यम् । अद्र॑य: । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । तेभि॑: । व॒र्ध॒स्व॒ । मद॑म् । उ॒क्थ॒ऽवा॒ह॒: ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सु धूतस्य हरिवः पिबेह नृभिः सुतस्य जठरं पृणस्व। मिमिक्षुर्यमद्रय इन्द्र तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व मदमुक्थवाहः ॥
स्वर रहित पद पाठअप्ऽसु । धूतस्य । हरिऽव: । पिब । इह । नृऽभि: । सुतस्य । जठरम् । पृणस्व ॥ मिमिक्षु: । यम् । अद्रय: । इन्द्र । तुभ्यम् । तेभि: । वर्धस्व । मदम् । उक्थऽवाह: ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(हरिवः) हे इन्द्रियाश्वों के, या ऋक्-साम की स्तुतियों के स्वामी! (अप्सु) जलों में (धूतस्य) धोकर निर्मल की गई वस्तु के सदृश पवित्र, अर्थात् रजस् और तमस् के मलों से रहित, (नृभिः) उपासक-नेताओं द्वारा (सुतस्य) निष्पादित भक्तिरस का, (इह) इस हमारे भक्तियज्ञ में (पिब) आप पान कीजिए। और (जठरम्) समग्र अन्तरिक्ष को सुखों से पूरित कर दीजिए। (अद्रयः) पर्वतों के सदृश उपासना-व्रतों में सुदृढ़ उपासकों ने (इन्द्र) हे परमेश्वर! (यम्) जिस भक्तिरस को (तुभ्यम्) आपके लिए (मिमिक्षुः) सींचा है, (तेभिः) उन भक्तिरसों को स्वीकार करके आप (उक्थवाहः) स्तुतियों के वाहक उपासकों की (मदम्) प्रसन्नता को (वर्धस्व) बढ़ाइए।
टिप्पणी -
[जठरम्=‘अन्तरिक्षमुतोदरम्’ (अथर्व০ १०.७.३२), अन्तरिक्ष परमेश्वर का उदर है, जठर है। मिमिक्षुः=मिह सेचने?।]