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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
इन्द्रो॑ दधी॒चो अ॒स्थभि॑र्वृ॒त्राण्यप्र॑तिष्कुतः। ज॒घान॑ नव॒तीर्नव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । द॒धी॒च: । अ॒स्थऽभि॑: । वृ॒त्राणि॑ । अप्र॑तिऽस्कुत: ॥ ज॒घान॑ । न॒व॒ती: । नव॑ ॥४१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः। जघान नवतीर्नव ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । दधीच: । अस्थऽभि: । वृत्राणि । अप्रतिऽस्कुत: ॥ जघान । नवती: । नव ॥४१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्रः) परमेश्वर (अप्रतिष्कुतः) जो कि किसी भी विरोधी शक्ति द्वारा प्रतिरुद्ध नहीं हो सकता, (अस्थभिः) अपनी परास्त कर देनेवाली शक्तियों, (दधीचः) ध्यानी के (नवतीः) न-वाले (नव वृत्राणि) ९ वृत्रों का (जघान) हनन कर देता है।
टिप्पणी -
[अप्रतिष्कुतः=अ+प्रति+कुतः। अथवा—अ+प्रति+स्कुञ् (विरोधे)+क्त। अस्थभिः=अस् (प्रक्षेपे)। दधीचः=“दध्यङ्” पद की व्याख्या में निरुक्त—“प्रत्यक्तो ध्यानमिति वा, प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमिति वा” (१२.४.३३), अर्थात् ध्यानप्राप्त योगी। नवतीः=न (इन्कार, नास्तिकता)+वतीः, परमेश्वर को न माननेवाले। नव=९ (नौ), अर्थात् ५ ज्ञानेन्द्रियाँ और अन्तःकरण चतुष्टय, अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। इन नौ में जब तक रजस् और तमस् का बाहुल्य होता है, तब तक ये नौ वृत्ररूप होते हैं, आध्यात्मिक सच्चाई का आवरण किये रहते हैं। ईश्वर-प्रणिधान द्वारा, ध्यानी-योगी जब सत्त्वप्रधान बन जाता है, तब ध्यानी की वृत्ररूप ये ९ शक्तियाँ देवकोटि की हो जाती हैं। परमेश्वर की कृपा से ध्यानी की नौ शक्तियाँ, जो कि पहिले नास्तिकता धारण किये वृत्ररूप थीं, अब आस्तिक होकर परमेश्वरीय सत्ता का अनुभव करके देव बन जाती हैं, मानो कि परमेश्वर ने इनके वृत्ररूपों का हनन कर दिया है।]