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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । अह॑ । स्व॒धाम् । अनु॑ । पुन॑: । ग॒र्भ॒ऽत्वम् । आ॒ऽई॒रि॒रे ॥ दधा॑ना: । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् ॥४०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे। दधाना नाम यज्ञियम् ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । अह । स्वधाम् । अनु । पुन: । गर्भऽत्वम् । आऽईरिरे ॥ दधाना: । नाम । यज्ञियम् ॥४०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(आत्) उपासना यज्ञों की सफलता के पश्चात् (अह) निश्चय से ये उपासक, (स्वधाम्) मोक्षरूपी अन्न का आस्वादन करते हैं। (अनु) इस आस्वादन के पश्चात् वे उपासक, (पुनः) फिर (गर्भत्वम् एरिरे) मातृगर्भों में आते हैं। और जन्म लेकर (यज्ञियम्) पूजनीय परमेश्वर के (नाम) नाम का (दधानाः) जप करने लगते हैं।
टिप्पणी -
[स्वधा=अन्नम् (निघं০ २.७), मोक्षरूपी अन्न। मोक्षरूपी अन्न को स्वधा इसलिए कहते हैं कि यह अन्न, प्राकृतिक अन्न के सदृश न होकर केवल आत्मा के निज स्वरूप द्वारा प्राप्य है। स्वधा=स्व+धा (धारक)। (सूक्त ४०) में मरुतः २-३ का अभिप्राय है—प्राणायामाभ्यासी उपासनायज्ञ के ऋत्विक्; मरुतः=ऋत्विजः (निघं০ ३.१८)।]