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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
अ॑नव॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति। ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒व॒द्यै: । अ॒भिद्यु॑ऽभि: । म॒ख: । सह॑स्वत् । अ॒र्च॒ति॒ ॥ ग॒णै: । इन्द्र॑स्य । काम्यै॑: ॥४०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति। गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठअनवद्यै: । अभिद्युऽभि: । मख: । सहस्वत् । अर्चति ॥ गणै: । इन्द्रस्य । काम्यै: ॥४०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अनवद्यैः) पापरहित अर्थात् पवित्र, (अभिद्युभिः) द्युतियों से सम्पन्न, तथा (इन्द्रस्य काम्यैः) परमेश्वर को प्रिय लगनेवाले (गणैः) उपासक गणों द्वारा सम्पन्न (मखः) उपासना-यज्ञ, (सहस्वत्) बल प्राप्त करता हुआ, (अर्चति) परमेश्वर की अर्चना करता है।
टिप्पणी -
[अर्थात् पवित्रात्मा, परमेश्वर के प्रिय हो जाते हैं, और उनके उपासनायज्ञ शीघ्र फलदायक हो जाते हैं।]