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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्यु॒षा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒न: । अबि॑भ्युषा ॥ म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥४०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण । सम् । हि । दृक्षसे । सम्ऽजग्मान: । अबिभ्युषा ॥ मन्दू इति । समानऽवर्चसा ॥४०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
हे उपासक! (अबिभ्युषा) स्वयं निर्भय तथा भय से रहित करनेवाले (इन्द्रेण) परमेश्वर के साथ (संजग्मानः) संगम-प्राप्त तू, (सम् हि दृक्षसे) तत्सदृश सा दिखाई दे रहा है। (मन्दू) तुम दोनों संतृप्त हो, (समानवर्चसा) समान प्रकार की सात्त्विक-दीप्ति से सम्पन्न हो।