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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
यद्वी॒डावि॑न्द्र॒ यत्स्थि॒रे यत्पर्शा॑ने॒ परा॑भृतम्। वसु॑ स्पा॒र्हं तदा भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वी॒लौ । इ॒न्द्र॒ । यत् । स्थि॒रे । यत् । पर्शा॑ने । परा॑भृतम् । वसु॑ । स्पा॒र्हम् । तत् । आ । भ॒र॒ ॥४३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम्। वसु स्पार्हं तदा भर ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वीलौ । इन्द्र । यत् । स्थिरे । यत् । पर्शाने । पराभृतम् । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥४३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (वीळौ=वीडौ) बलवान् वीर में (यत् वसु) आपने जो वीरता-धन (पराभृतम्) उत्कर्षरूप में भरा है, (स्थिरे) स्थिरचित्तवाले योगी में (यत्) जो योग-सम्पत् आपने उत्कर्षरूप में भर दी है, (पर्शाने) मेघ में (यत्) आपने जो वर्षणरूपी धन भरा है—(स्पार्हं तद् वसु) स्पृहणीय वे धन (आ भर) मुझ में भी भर दीजिए।]
टिप्पणी -
[पर्शानः=मेघः (निघं০ १.१०)। उपासक, परमेश्वर से अपने जीवन में वीरता, स्थिरचित्तता, और परोपकार भावनाओं की प्रार्थना करता है।]