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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे। अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठक: । ई॒म् । वे॒द॒ । सु॒ते । सचा॑ । पिब॑न्तम् । कत् । वय॑: । द॒धे॒ ॥ अ॒यम् । य: । पुर॑:। वि॒ऽभि॒नत्ति॑ । ओज॑सा । म॒न्दा॒न: । शि॒प्री । अन्ध॑स: ॥ ५३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे। अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठक: । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वय: । दधे ॥ अयम् । य: । पुर:। विऽभिनत्ति । ओजसा । मन्दान: । शिप्री । अन्धस: ॥ ५३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सुते) उपासक में भक्तिरस के उत्पन्न हो जाने पर, हे परमेश्वर! (सचा) साथ-साथ, अर्थात् उपासक जब आपके आनन्दरस का पान करता है, तो उसके भक्तिरस को (पिबन्तम्) पीते हुए आपको (कः) कौन उपासनारहित व्यक्ति (वेद) जान सकता है? [उस आपको तो उपासक ही उस अवस्था में जान सकता है]; उपासक (कत्) किस प्रकार के (वयः) आनन्दरसरूपी अन्न को (दधे) निज आत्मा में धारण कर रहा होता है, (ईम्) इसे भी उपासनारहित कौन व्यक्ति जान सकता है? हे परमेश्वर! (अयम्) आप यह हैं (यः) जो कि (मन्दानः) प्रसन्न होकर (ओजसा) निज प्रभाव द्वारा (पुरः) आसुरी भावनाओं के गढ़ों को (विभिनत्ति) तोड़-फोड़ देते हैं, जैसे कि (शिप्री) तेजस्वी-मुखवाला सेनापति, (अन्धसः) अन्न से भरे शत्रु के (पुरः) किलों और नगरों को तोड़-फोड़ देता है।