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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 53

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५३

    य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः। यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । उ॒ग्र: । सन् । अनि॑:ऽस्तृत: । स्थि॒र: । रणा॑य । संस्कृ॑त: ॥ यदि॑ । स्तो॒तु: । म॒घऽवा॑ । शृ॒ण्व॑त् । हव॑म् । न । इन्द्र॑: । यो॒ष॒ति॒ । आ । ग॒म॒त् ॥५३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उग्रः सन्ननिष्टृतः स्थिरो रणाय संस्कृतः। यदि स्तोतुर्मघवा शृणवद्धवं नेन्द्रो योषत्या गमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । उग्र: । सन् । अनि:ऽस्तृत: । स्थिर: । रणाय । संस्कृत: ॥ यदि । स्तोतु: । मघऽवा । शृण्वत् । हवम् । न । इन्द्र: । योषति । आ । गमत् ॥५३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (यः) जो (स्थिरः) सदा स्थिर रहनेवाला नित्य जीवात्मा, (रणाय) आसुरी शक्तियों के साथ युद्ध के लिए (संस्कृतः) अच्छी प्रकार तैयार हो गया है, वह (उग्रः सन्) उग्ररूप होकर (अनिष्टृतः) आसुरी शक्तियों द्वारा आच्छादित नहीं हो पाता। तब (यदि) अगर (मघवा इन्द्रः) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर (स्तोतुः) स्तुतिकर्त्ता की (हवम्) मोक्षसम्बन्धी पुकार को (शृणवत्) सुन लेता है, तब यह स्तुतिकर्त्ता (योषति न) जन्म-मरण के बन्धन में आकर हिंसित नहीं होता, अपितु (आ गमत्) परमेश्वर की शरण में ही आ जाता है।

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