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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे। नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हाँश्च॑र॒स्योज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठदा॒ना । मृ॒ग:। वा॒र॒ण: । पु॒रु॒ऽत्रा । च॒रथ॑म् । द॒धे॒ ॥ नकि॑: । त्वा॒ । नि । य॒म॒त् । आ । सु॒ते । ग॒म॒: । म॒हान् । च॒र॒सि॒ । ओज॑सा ॥५३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दाना मृगो न वारणः पुरुत्रा चरथं दधे। नकिष्ट्वा नि यमदा सुते गमो महाँश्चरस्योजसा ॥
स्वर रहित पद पाठदाना । मृग:। वारण: । पुरुऽत्रा । चरथम् । दधे ॥ नकि: । त्वा । नि । यमत् । आ । सुते । गम: । महान् । चरसि । ओजसा ॥५३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(न) जैसे (मृगः वारणः) जङ्गली हाथी, जङ्गल में (दाना=दानानि) तोड़-फोड़ (दधे) करता है, और (पुरुत्रा) बहुत स्थानों में (चरथं दधे) स्वच्छन्द विचरता है, वैसे ही तू मुक्तात्मा, शारीरिक बन्धनों को तोड़-फोड़ कर सर्वत्र स्वच्छन्द विचरता है। हे मुक्तात्मन्! स्वच्छन्द विचरने में (नकिः) कोई नहीं (त्वा) तुझे (नियमत्) नियन्त्रित कर सकता है। (सुते) इस उत्पन्न जगत् में (आ गमः) तू फिर लौट कर आता है, पुनः जन्म धारण करता है। तू (महान्) महाशक्ति से सम्पन्न होकर (ओजसा) निज शक्ति द्वारा (चरसि) विचरता है।
टिप्पणी -
[मन्त्र १ में उपासक के आनन्दरसपान का वर्णन हुआ है। आनन्दरसपान कर जब जीवात्मा मुक्त हो जाता है, उसका वर्णन मन्त्र २ में हुआ है। दाना=दाप् लवणे; दान खण्डने।]