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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 54

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
    सूक्त - रेभः देवता - इन्द्रः छन्दः - अतिजगती सूक्तम् - सूक्त-५४

    विश्वाः॒ पृत॑ना अभि॒भूत॑रं॒ नरं॑ स॒जूस्त॑तक्षु॒रिन्द्रं॑ जज॒नुश्च॑ रा॒जसे॑। क्रत्वा॒ वरि॑ष्ठं॒ वर॑ आ॒मुरि॑मु॒तोग्रमोजि॑ष्ठं त॒वसं॑ तर॒स्विन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑: । पृत॑ना: । अ॒भि॒ऽभूत॑रम् । नर॑म् । स॒ऽजू: । त॒त॒क्षु॒: । इन्द्र॑म् । ज॒ज॒नु: । च॒ । रा॒जसे॑ ॥ क्रत्वा॑ । वरि॑ष्ठम् । वरे॑ । आ॒ऽमुरि॑म् । उ॒त । उ॒ग्रम् । ओजि॑ष्ठम् । त॒वस॑म् । त॒र॒स्विन॑म् ॥५४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वाः पृतना अभिभूतरं नरं सजूस्ततक्षुरिन्द्रं जजनुश्च राजसे। क्रत्वा वरिष्ठं वर आमुरिमुतोग्रमोजिष्ठं तवसं तरस्विनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वा: । पृतना: । अभिऽभूतरम् । नरम् । सऽजू: । ततक्षु: । इन्द्रम् । जजनु: । च । राजसे ॥ क्रत्वा । वरिष्ठम् । वरे । आऽमुरिम् । उत । उग्रम् । ओजिष्ठम् । तवसम् । तरस्विनम् ॥५४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 54; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    (विश्वाः पृतनाः) काम-क्रोध आदि की सब सेनाओं का (अभिभूतरम्) पराभव करनेवाले, (नरम्) जगन्नेता, (सजूः) अपने साथी, (क्रत्वा) सत्कर्मों और प्रज्ञाओं की दृष्टि से (वरिष्ठम्) सर्वश्रेष्ठ, (वरे) उपासक को वर लेने पर (आमुरिम्) उसकी अविद्या का पूर्णतया विनाश करनेवाले, (उत) और (उग्रम्) अविद्या के विनाश करने में उग्ररूप, (ओजिष्ठम्) अत्यन्त ओजस्वी, (तरस्विनम्) बलवान् तथा (तवसम्) बलस्वरूप (इन्द्रम्) परमेश्वर को—प्रथम तो उपासक (ततक्षुः) आभासिक प्रतीति के रूप में, (च) और तदनन्तर (जजनुः) प्रत्यक्ष प्रतीति के रूप में प्रकट कर लेते हैं, (राजसे) ताकि परमेश्वर उन पर राज्य करे, और उनके हृदयों में सदा विराजमान रहे।

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