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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
या इ॑न्द्र॒ भुज॒ आभ॑रः॒ स्वर्वाँ॒ असु॑रेभ्यः। स्तो॒तार॒मिन्म॑घवन्नस्य वर्धय॒ ये च॒ त्वे वृ॒क्तब॑र्हिषः ॥
स्वर सहित पद पाठया: । इ॒न्द्र॒ । भुज॑: । आ । अभ॑र: । स्व॑:ऽवान् । असु॑रेभ्य: ॥ स्तो॒तार॑म् । इत् । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒स्य॒ । व॒र्ध॒य॒ । ये । च॒ । त्वे इति॑ । वृ॒क्तऽब॑र्हिष: ॥५५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
या इन्द्र भुज आभरः स्वर्वाँ असुरेभ्यः। स्तोतारमिन्मघवन्नस्य वर्धय ये च त्वे वृक्तबर्हिषः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । इन्द्र । भुज: । आ । अभर: । स्व:ऽवान् । असुरेभ्य: ॥ स्तोतारम् । इत् । मघऽवन् । अस्य । वर्धय । ये । च । त्वे इति । वृक्तऽबर्हिष: ॥५५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (स्वर्वान्) प्रकाशमान तथा सुखसामग्री के भण्डारी हैं। आप (असुरेभ्यः) असुरों से, अपने प्राणपोषणमात्र में जो रत हैं उनसे, (याः) जो उनकी (भुजः) भोग-सामग्रियाँ हैं उन्हें (आ भरः) हर लेते है। (मघवन्) हे सम्पत्तिशाली परमेश्वर! आप (स्तोतारम् इत्) अपने स्तुतिकर्त्ता को ही (अस्य) इस सम्पत्ति के दान द्वारा (वर्धय) बढ़ाइए, (च) और उन्हें भी बढ़ाइए (ये) जो कि (त्वा) आपकी प्रसन्नता के निमित्त (वृक्तबर्हिषः) कर्मकाण्डीय यज्ञकर्म करते हैं।
टिप्पणी -
[छान्दोग्य उपनिषद् में ‘असुर’ का लक्षण निम्नलिखित किया है—“तस्मादप्यद्येहाददानम-श्रद्दधानमयजमानमाहुरसुरो बतेति। असुराणां ह्येषोपनिषद् प्रेतस्य शरीरं भिक्षया वसनेनालङ्कारेणेति संस्कुर्वन्ति। एतेन ह्यमुं लोकं जेष्यन्तो मन्यन्ते” (छान्दो০ ८.८.५)। अर्थात् दान न देनेवाले, श्रद्धाहीन, और यज्ञों को न करनेवाले को ‘असुर’ कहते हैं। ये मृत के भी शरीर को अन्न द्वारा, वस्त्रों द्वारा, आभूषणों द्वारा सुशोभित करते हैं, इस विचार से इन कर्मों द्वारा प्रेत परलोक पर विजय पालेगा”। अतः सांसारिक भोग ही असुरों के लिए जीवन का ध्येय होता है। ऐसे विचारोंवाले व्यक्ति स्वार्थपरायण होते हैं, और उत्पातों के कारण बन जाते हैं। अतः इनकी सम्पत्तियों पर नियन्त्रण आवश्यक है। जो प्रभु के सच्चे भक्त होते हैं, वे परोपकार परसेवा की भावनावाले होते हैं। ऐसों के पास आई सम्पत्ति परसेवार्थ होती है।]