अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
इन्द्रो॒ मदा॑य वावृधे॒ शव॑से वृत्र॒हा नृभिः॑। तमिन्म॒हत्स्वा॒जिषू॒तेमर्भे॑ हवामहे॒ स वाजे॑षु॒ प्र नो॑ऽविषत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । मदा॑य । व॒वृ॒धे॒ । शव॑से । वृ॒त्र॒हा । नृऽभि॑: ॥ तम् । इत् । म॒हत्ऽसु॑ । आ॒जिषु॑ । उ॒त । ई॒म् । अर्भे॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । स: । वाजे॑षु । प्र । न॒: । अ॒वि॒ष॒त् ॥५६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो मदाय वावृधे शवसे वृत्रहा नृभिः। तमिन्महत्स्वाजिषूतेमर्भे हवामहे स वाजेषु प्र नोऽविषत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । मदाय । ववृधे । शवसे । वृत्रहा । नृऽभि: ॥ तम् । इत् । महत्ऽसु । आजिषु । उत । ईम् । अर्भे । हवामहे । स: । वाजेषु । प्र । न: । अविषत् ॥५६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(नृभिः) नर-नारियों द्वारा उपासित (इन्द्रः) परमेश्वर (वृत्रहा) उपासकों के पापों का हनन करता है, और (वावृधे) उनकी वृद्धि करता, और उन्हें (मदाय) हर्ष तथा आध्यात्मिक तृप्ति, तथा (शवसे) बलप्रदान के लिए तत्पर रहता है। (महत्सु) बड़े (आजिषु) देवासुर-संग्रामों में, (उत) और (अर्भे) छोटे देवासुर-संग्रामों में (तम् इत् इम्) उसी परमेश्वर का (हवामहे) हम आह्वान करते हैं। (सः) वह परमेश्वर (वाजेषु) इन संग्रामों में (नः) हमारी (प्र अविषत्) पूर्णरक्षा करता है।
टिप्पणी -
[बड़े संग्राम वे जब कि काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि इकट्ठे होकर संग्राम में उपस्थित होते हैं, तथा छोटे संग्राम वे जब कि इनमें से किसी एक के साथ संग्राम लड़ता होता है।]