अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
मो षु ब्र॒ह्मेव॑ तन्द्र॒युर्भुवो॑ वाजानां पते। मत्स्वा॑ सु॒तस्य॒ गोम॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । ब्र॒ह्माऽइ॑व । त॒न्द्र॒यु: । भुव॑: । वा॒जा॒ना॒म् । प॒ते॒ ॥ मत्स्व॑ । सु॒तस्य॑ । गोऽम॑त: ॥६०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु ब्रह्मेव तन्द्रयुर्भुवो वाजानां पते। मत्स्वा सुतस्य गोमतः ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति । सु । ब्रह्माऽइव । तन्द्रयु: । भुव: । वाजानाम् । पते ॥ मत्स्व । सुतस्य । गोऽमत: ॥६०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 60; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
परमेश्वर द्वारा दिये गये (वाजानाम्) आध्यात्मिक-अन्नों और आध्यात्मिक-बलों के (पते) हे पति! हे योगेश्वर! आप इन अन्नों और बलों के प्रदान में (तन्द्रयुः) आलसी (मा उ भुवः) कभी न हूजिए, अपितु (सु ब्रह्मा इव) चारों वेदों के जाननेवाले श्रेष्ठ-ब्रह्मा के सदृश, योगविद्या के दान देने में आप भी (भुवः) सक्रिय हूजिए। और (गोमतः) वेदवाणी के स्वामी परमेश्वर के निमित्त (सुतस्य) निष्पादित भक्तिरस के आस्वादन में (मत्स्व) मस्त रहिए। अभिप्राय यह है कि जैसे श्रेष्ठ-ब्रह्मा सदा परोपकारार्थ वेदविद्या का दान करता है, वैसे आप योगेश्वर भी योगविद्या का सदा दान करते रहिए। ब्रह्मा के सम्बन्ध में कहा है कि—“ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्याम्” (ऋ০ १०.७१.११), अर्थात् ब्रह्मा वेदविद्या का कथन करता रहता है।
टिप्पणी -
[वाजानाम्—वाजः=अन्नम् (निघं০ २.५); बलम् (निघं০ २.९)। आध्यात्मिक विभूतियाँ उपासक के लिए आध्यात्मिक-अन्न तथा आध्यात्मिक-बल रूप होती हैं। यथा—“ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः” (योगदर्शन ३.३७)। गो=वाक् (निघं০ १.११)।]