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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
वि॒दुष्टे॑ अ॒स्य वी॒र्यस्य पू॒रवः॒ पुरो॒ यदि॑न्द्र॒ शार॑दीर॒वाति॑रः सासहा॒नो अ॒वाति॑रः। शास॒स्तमि॑न्द्र॒ मर्त्य॒मय॑ज्युं शवसस्पते। म॒हीम॑मुष्णाः पृथि॒वीमि॒मा अ॒पो म॑न्दसा॒न इ॒मा अ॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒दु: । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्यस्य॑ । पू॒रव॑: । पुर॑: । यत् । इ॒न्द्र॒ । शार॑दी: । अ॒व॒ऽअति॑र: । स॒स॒हा॒न: । अ॒व॒ऽअति॑र: ॥ स॒स॒हा॒न: । अ॒व॒ऽअति॑र: ॥ शास॑: । तम् । इ॒न्द्र॒ । मर्त्य॑म् । अय॑ज्युम् । श॒व॒स॒: । प॒ते॒ ॥ म॒हीम् । अ॒मु॒ष्णा॒: । पृ॒थि॒वीम् । इ॒मा: । अ॒प: । म॒न्द॒सा॒न: । इ॒मा: । अ॒प: ॥७५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
विदुष्टे अस्य वीर्यस्य पूरवः पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः सासहानो अवातिरः। शासस्तमिन्द्र मर्त्यमयज्युं शवसस्पते। महीममुष्णाः पृथिवीमिमा अपो मन्दसान इमा अपः ॥
स्वर रहित पद पाठविदु: । ते । अस्य । वीर्यस्य । पूरव: । पुर: । यत् । इन्द्र । शारदी: । अवऽअतिर: । ससहान: । अवऽअतिर: ॥ ससहान: । अवऽअतिर: ॥ शास: । तम् । इन्द्र । मर्त्यम् । अयज्युम् । शवस: । पते ॥ महीम् । अमुष्णा: । पृथिवीम् । इमा: । अप: । मन्दसान: । इमा: । अप: ॥७५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 75; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (पूरवः) मनुष्य (पुरः) अपने सामने ही, अर्थात् अपने जीवित काल में ही, (ते) आपके (अस्य वीर्यस्य) इस सामर्थ्य को (विदुः) जान लेते हैं—(१) (यत्) जब कि जीवनों की (शारदीः) शरत्कालीन अवस्थाओं अर्थात् जरावस्थाओं के उपस्थित हो जाने पर आप जीवनों का (अवातिरः) संहार कर देते हैं, (सासहानः) सहसा (अवातिरः) संहार कर देते हैं; (२) तथा (शवसस्पते इन्द्र) हे बलों के पति परमेश्वर! जब कि आप (तम्) उस (अयज्युम्) यज्ञिय-भावनाओं से रहित (मर्त्यम्) मनुष्य-समुदाय का (शासः) शासन करते हैं, उस पर दण्डविधान करते है; (३) तथा जब (मन्दसानः) निज प्रसन्नता में ही आप (महीं पृथिवीम्) विस्तृत पृथिवी को, और (इमा अपः) नदी नालों और समुद्रों की इस महा जलराशि को, तथा इन क्रियमाण नानाविध कर्मकलापों को (अमुष्णाः) प्रलय में मानो चुरा-से लेते हैं, अपने में लीन कर लेते हैं, (इमाः अपः) इन जलों को अपने में लीन कर लेते हैं।
टिप्पणी -
[शारदीः=जीर्ण-शीर्ण अवस्थाएँ। वर्ष में तीन मुख्य ऋतुएँ होती हैं—ग्रीष्म, वर्षा, और सर्दी। सर्दी की समाप्ति में वर्ष की समाप्ति हो जाती है। इसी प्रकार जीवन की शरद्-ऋतु जरावस्था है, जिसकी समाप्ति पर जीवन की समाप्ति हो जाती है। अपः=जल (निघं০ १.१२); कर्म (निघं০ २.१)।]