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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
आपू॑र्णो अस्य क॒लशः॒ स्वाहा॒ सेक्ते॑व॒ कोशं॑ सिषिचे॒ पिब॑ध्यै। समु॑ प्रि॒या आव॑वृत्र॒न्मदा॑य प्रदक्षि॒णिद॒भि सोमा॑स॒ इन्द्र॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआऽपू॑र्ण: । अ॒स्य॒ । क॒लश॑: । स्वाहा॑ । सेक्ता॑ऽइव । कोश॑म् । सि॒स॒चे॒ । पिब॑ध्यै ॥ सम् । ऊं॒ इति॑ । प्रि॒या । आ । अ॒वृ॒त्र॒न् । मदा॑य । प्र॒ऽद॒क्षि॒णित् । अ॒भि । सोमा॑स: । इन्द्र॑म् ॥८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आपूर्णो अस्य कलशः स्वाहा सेक्तेव कोशं सिषिचे पिबध्यै। समु प्रिया आववृत्रन्मदाय प्रदक्षिणिदभि सोमास इन्द्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽपूर्ण: । अस्य । कलश: । स्वाहा । सेक्ताऽइव । कोशम् । सिसचे । पिबध्यै ॥ सम् । ऊं इति । प्रिया । आ । अवृत्रन् । मदाय । प्रऽदक्षिणित् । अभि । सोमास: । इन्द्रम् ॥८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अस्य) इस उपासक का (कलशः) हृदय-कलश (आपूर्णः) भक्तिरस से पूरा भरा हुआ है, (स्वाहा) यह आहुतिरूप में आपके प्रति समर्पित है। (इव) जैसे (पिबध्यै) पीने के लिए (सेक्ता) दूध आदि का सींचनेवाला (कोशम्) अपने अन्नमय कोश को, शरीर को (सिसिचे) सींचता है, वैसे मैं उपासक भक्तिरस को आप पर सींचता हूँ। (प्रियाः) आपके प्रिय (सोमासः) भक्तिरस (मदाय) आपकी प्रसन्नता के लिए (इन्द्रम् अभि) आप परमेश्वर की ओर (सम् आववृत्रन्) सम्यक् रूप में प्रवृत्त हुए हैं। और इस उपासक ने आनन्दरस के रूप में (प्रदक्षिणित्) प्रकृष्ट दक्षिणा प्राप्त कर ली है।
टिप्पणी -
[प्रदक्षिणित्=प्र (=प्रक्ष्ट)+दक्षिणा+इत् (इण् गतौ, क्विप्, तुक्) वैदिक प्रयोग।]