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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ए॒वा पा॑हि प्र॒त्नथा॒ मन्द॑तु त्वा श्रु॒धि ब्रह्म॑ वावृ॒धस्वो॒त गी॒र्भिः। आ॒विः सूर्यं॑ कृणु॒हि पी॑पि॒हीषो॑ ज॒हि शत्रूँ॑र॒भि गा इ॑न्द्र तृन्धि ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । पा॒हि॒ । प्र॒त्नऽथा॑ । मन्द॑तु । त्वा॒ । श्रुधि॑ । ब्रह्म॑ । व॒वृ॒धस्व॒ । उ॒त । गी॒ऽभि: ॥ आ॒वि: । सूर्य॑म् । कृ॒णु॒हि ।पी॒पि॒हि । इष॑: । ज॒हि । शत्रू॑न् । अ॒भि । गा: । इ॒न्द्र॒ । तृ॒न्द्धि॒ ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा पाहि प्रत्नथा मन्दतु त्वा श्रुधि ब्रह्म वावृधस्वोत गीर्भिः। आविः सूर्यं कृणुहि पीपिहीषो जहि शत्रूँरभि गा इन्द्र तृन्धि ॥
स्वर रहित पद पाठएव । पाहि । प्रत्नऽथा । मन्दतु । त्वा । श्रुधि । ब्रह्म । ववृधस्व । उत । गीऽभि: ॥ आवि: । सूर्यम् । कृणुहि ।पीपिहि । इष: । जहि । शत्रून् । अभि । गा: । इन्द्र । तृन्द्धि ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(एवा=एवम्) इस प्रकार अर्थात् तृप्तिकारक आनन्दरस की वर्षा द्वारा (मन्त्र २२ और ३३) (प्रत्नथा) अनादिकाल के सदृश आप (पाहि) हमारी रक्षा कीजिए। हमारा भक्तिरस (त्वा) आपको (मन्दतु) हर्षित करे, प्रसन्न करे। हमारी (ब्रह्म) ब्रह्मविषयक स्तुतियों को (श्रुधि) सुनिए। (उत) और (गीर्भिः) इन स्तुतियों के कारण (वावृधस्व) हमारी वृद्धि कीजिए। (सूर्यम्) हमारे तृतीय-नेत्र को (आविः कृणुहि) आविष्कृत कीजिए, प्रकट कीजिए। (इषः) हमारी अभिलाषाओं को (पीपिहि) प्रगति दीजिए या बढ़ाइए। हमारे (शत्रून्) कामादि शत्रुओं का (जहि) हनन कीजिए। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (गाः) हमारी पार्थिव अभिलाषाओं को (अभितृन्धि) काट दीजिए।
टिप्पणी -
[पीपिहि=पि गतौ; प्यायी वृद्धौ। सूर्यम्=“चक्षोः सूर्योऽजायत” (यजुः০ ३१.१२)। गाः=गौ पृथिवी (निघं০ १.१) अर्थात् पार्थिव अभिलाषाएँ। तृन्धि=तृह् हिंसायाम्।]