Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
यदि॑न्द्र॒ याव॑त॒स्त्वमे॒ताव॑द॒हमीशी॑य। स्तो॒तार॒मिद्दि॑धिषेय रदावसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ रासीय ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्र॒ । याव॑त: । त्वम् । ए॒ताव॑त् । अ॒हम् । ईशी॑य ॥ स्तो॒तार॑म् । इत् । दि॒धि॒षे॒य॒ । र॒द॒व॒सो॒ इति॑ रदऽवसो । न । पा॒प॒ऽत्वाय॑ । रा॒सी॒य॒ ॥८२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय। स्तोतारमिद्दिधिषेय रदावसो न पापत्वाय रासीय ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्र । यावत: । त्वम् । एतावत् । अहम् । ईशीय ॥ स्तोतारम् । इत् । दिधिषेय । रदवसो इति रदऽवसो । न । पापऽत्वाय । रासीय ॥८२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (यावतः) जितने ऐश्वर्य के (त्वम्) आप अधीश्वर हैं, (एतावत्) इतने ऐश्वर्य का (यद्) यदि (ईशीय) मैं अधीश्वर बन जाऊँ, तो मैं आप के (स्तोतारम्) स्तोता का (इत्) ही केवल (दिधिषेय) धारण-पोषण करूँ। (रदावसो) हे सम्पत्तियों के दाता! मैं आप की दी हुई सम्पत्तियों को (पापत्वाय) पापी को पाप कर्म करने के लिए (न रासीय) न दूं। [रदावसो=रा (दाने)+दा (दाने)+वसु (सम्पत्ति)]