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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 85

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
    सूक्त - प्रगाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८५

    अ॑वक्र॒क्षिणं॑ वृष॒भं य॑था॒जुरं॒ गां न च॑र्षणी॒सह॑म्। वि॒द्वेष॑णं सं॒वन॑नोऽभयंक॒रं मंहि॑ष्ठमुभया॒विन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व॒ऽक्र॒क्षिण॑म् । वृ॒ष॒भम् । य॒था॒ । अ॒जुर॑म् । गाम् । न । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् ॥ वि॒ऽद्वेष॑णम् । स॒म्ऽवन॑ना । उ॒भ॒य॒म्ऽका॒रम् । मंहि॑ष्ठम् । उ॒भ॒या॒विन॑म् ॥८५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम्। विद्वेषणं संवननोऽभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ॥ विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकारम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥८५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 85; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (वृषभं यथा) बैल के सदृश (अवक्रक्षिणम्) उखाड़ देनेवाले, अर्थात् बैल जैसे कृषि करते समय भूमि को हल द्वारा उखाड़ देता है, वैसे दुष्कर्मियों को उखाड़ देनेवाले, (जुरम्) सत्कर्मियों को प्रगति देनेवाले, और (गाम् न) गौ के सदृश (चर्षणीसहम्) सत्कर्मी-जनों को तृप्ति देनेवाले, (विद्वेषणम्) द्वेषभावनाओं से रहित, (संवनना) अनुग्रह, तथा (उभयंकरम्) अनुग्रह और निग्रह दोनों को करनेवाले, (मंहिष्ठम्) महादानी, (उभयाविनम्) निग्रह और अनुग्रह—इन दोनों के रक्षक परमेश्वर की [मुहूःशंसत] (पूर्व मन्त्र १) बार-बार प्रशंसा किया करो।

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