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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
त्वं सिन्धूँ॒रवा॑सृजोऽध॒राचो॒ अह॒न्नहि॑म्। अ॑श॒त्रुरि॑न्द्र जज्ञिषे॒ विश्वं॑ पुष्यसि॒ वार्यं॒ तं त्वा॒ परि॑ ष्वजामहे॒ नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सिन्धू॑न् । अव॑ । अ॒सृ॒ज॒: । अ॒ध॒राच॑: । अह॑न् । अहि॑म् ॥ अ॒श॒त्रु: । इ॒न्द्र॒ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । विश्व॑म् । पु॒ष्य॒सि॒ । वार्य॑म् । तम् । त्वा॒ । परि॑ । स्व॒जा॒म॒हे॒ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सिन्धूँरवासृजोऽधराचो अहन्नहिम्। अशत्रुरिन्द्र जज्ञिषे विश्वं पुष्यसि वार्यं तं त्वा परि ष्वजामहे नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । सिन्धून् । अव । असृज: । अधराच: । अहन् । अहिम् ॥ अशत्रु: । इन्द्र । जज्ञिषे । विश्वम् । पुष्यसि । वार्यम् । तम् । त्वा । परि । स्वजामहे । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! (त्वम्) आपने (अहिम्) अन्तरिक्षवर्ती मेघ का (अहन्) हनन किया, और (सिन्धून्) स्यन्दनशील मेघीय जल-धाराओं का (अवासृजः) नीचे की ओर सर्जन किया है, और उन्हें (अधराचः) नीचे पृथिवी पर बहाया है। (इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (अशत्रुः) किसी के भी शत्रु नहीं हैं, (जज्ञिषे) यह गुण आपका स्वाभाविक है। आप (विश्वम्) सब (वार्यम्) वरण करने योग्य सद्गुणों का (परि पुष्यसि) परिपोषण करते रहते हैं। इसलिए (तं त्वा) उस आपका (परिष्वजामहे) हम परिष्वङ्ग करते हैं, आलिङ्गन करते हैं। (नभन्ताम्.....) शेष पूर्ववत् (मन्त्र २ के सदृश)।
टिप्पणी -
[उपासक समाधि में, शरीर की सुधबुध से रहित होकर जब निज आत्मरूप से परमेश्वर में लीन हो जाता है, तब यह लीन होना ही आलिङ्गन है। यह आत्मिक-आलिङ्गन है। यथा—“उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश” (यजुः০ ३२.११), अर्थात् सत्य के प्रथम-जनयिता का उपस्थान करके, उपासक आत्मस्वरूप से परमात्मा में प्रवेश पा जाता है, यही परिष्वङ्ग अर्थात् आलिङ्गन है। वार्यम्=अथवा वारि अर्थात् जल द्वारा पोषणयोग्य सभी प्रकार के पदार्थों का, ओषधि आदि का परिपोषण परमेश्वर करता है।]