Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
प्रो ष्व॑स्मै पुरोर॒थमिन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चत। अ॒भीके॑ चिदु लोक॒कृत्सं॒गे स॒मत्सु॑ वृत्र॒हास्माकं॑ बोधि चोदि॒ता नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठप्रो इति॑ । सु । अ॒स्मै॒ । पु॒र॒:ऽर॒थम् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒र्च॒त॒ ॥ अ॒भीके॑ । चि॒त् । ऊं॒ इति॑ । लो॒क॒ऽकृत् । स॒म्ऽगे । स॒मत्ऽसु॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । चो॒दि॒ता । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रो ष्वस्मै पुरोरथमिन्द्राय शूषमर्चत। अभीके चिदु लोककृत्संगे समत्सु वृत्रहास्माकं बोधि चोदिता नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रो इति । सु । अस्मै । पुर:ऽरथम् । इन्द्राय । शूषम् । अर्चत ॥ अभीके । चित् । ऊं इति । लोकऽकृत् । सम्ऽगे । समत्ऽसु । वृत्रऽहा । अस्माकम् । बोधि । चोदिता । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे उपासको! (अस्मै इन्द्राय) इस परमेश्वर के प्रति, तुम अपने (पुरोरथम्) पुरस्कृत शरीर-रथों को, और (शूषम्) शक्तियों को (सु) पूर्णरूप में तथा सम्यक् विधि से (उ) अवश्य (प्र अर्चत) प्रकृष्ट मात्रा में समर्पित कर दो। क्योंकि परमेश्वर (अभीके चित्) हृदय के समीपवर्ती होकर (उ) अवश्य (लोककृत्) आलोक पैदा कर देता है। (संगे) और उसके मेल हो जाने पर (समत्सु) देवासुर-संग्रामों में वह (वृत्रहा) हमारे पाप-वृत्रों का हनन कर देता है, और (चोदिता) हमें प्रेरणाएँ देता है, और (अस्माकम्) हमारी कामनाओं को (बोधि) अवगत कर लेता है, ये कामना कि (अन्यकेषाम्) दिव्य भावनाओं से भिन्न आसुरी भावनाओं के (धन्वसु) धनुषों पर चढ़ी (ज्याकाः) डोरियाँ (नभन्ताम्) टूट-फूट जाएँ।