अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - शाला, वास्तोष्पतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शालनिर्माण सूक्त
मान॑स्य पत्नि शर॒णा स्यो॒ना दे॒वी दे॒वेभि॒र्निमि॑ता॒स्यग्रे॑। तृणं॒ वसा॑ना सु॒मना॑ अस॒स्त्वमथा॒स्मभ्यं॑ स॒हवी॑रं र॒यिं दाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमान॑स्य । प॒त्नि॒ । श॒र॒णा । स्यो॒ना । दे॒वी । दे॒वेभि॑: । निऽमि॑ता । अ॒सि॒ । अग्रे॑ । तृण॑म् । वसा॑ना । सु॒ऽमना॑: । अ॒स॒: । त्वम् । अथ॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । स॒हऽवी॑रम् । र॒यिम् । दा॒: ॥१२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
मानस्य पत्नि शरणा स्योना देवी देवेभिर्निमितास्यग्रे। तृणं वसाना सुमना असस्त्वमथास्मभ्यं सहवीरं रयिं दाः ॥
स्वर रहित पद पाठमानस्य । पत्नि । शरणा । स्योना । देवी । देवेभि: । निऽमिता । असि । अग्रे । तृणम् । वसाना । सुऽमना: । अस: । त्वम् । अथ । अस्मभ्यम् । सहऽवीरम् । रयिम् । दा: ॥१२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(मानस्य पत्नी) हे मान की पत्नी! (शरणा) तू शरणरूपा है, आश्रय है, (स्योना) सुखकारी है, (देवी) दिव्यरूपा या "द्योतमाना" [सायण] है, (अग्रे) गृहस्थी होने से पूर्व (देवेभिः) दिव्य बृहस्पतियों द्वारा (निमिता असि) तू निर्मित होती रही है [सायण]। (त्वम् तृणम् वसाना१) तू तृण का वस्त्र ओढ़ती हुई, (सुमना) हमारी मनों को प्रसन्न करनेवाली (अस) हो, (अथा) तदनन्तर (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (सहवीरम्) वीर सन्तानों सहित (रयिम् दाः) सम्पत्ति प्रदान कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र में पत्नी उपमान है, और शाला उपमेय है। उपमानवाचक पद लुप्त है। पत्नीपद सूचक है पति की सत्ता का, और शालापद सूचक है शाला के स्वामी का। पत्नी की सत्ता द्वारा पति का मान बना रहता है और शाला की सत्ता द्वारा शालाधिपति का मान बना रहता है। शाला के बिना गृहस्थी की ध्रुवा स्थिति नहीं होती, वह कभी किरायादार हुआ एक शाला का आश्रय लेता है, कभी दूसरी शाला का, जैसेकि पुरुष पत्नी के विना सहायतार्थ भटकता रहता है, और सामाजिक जीवन में उसकी स्थिति नहीं बन पाती। स्थिति के बनने के पश्चात् ही वह सन्तानों सहित सम्पत्तियों को प्राप्त करने का अधिकारी बन पाता है। "तृणं वसाना" द्वारा सर्वसुलभशाला सूचित हुई है। "तृणं वसाना" द्वारा झोंपड़ी प्रतीत होती है अथवा फूस की छत्त गर्मी-सर्दी से बचाती है।] [१. वस आच्छादने (अदादिः)।]