अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
यत्प्रेषि॑ता॒ वरु॑णे॒नाच्छीभं॑ स॒मव॑ल्गत। तदा॑प्नो॒दिन्द्रो॑ वो य॒तीस्तस्मा॒दापो॒ अनु॑ ष्ठन ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्रऽइ॑षिता: । वरु॑णेन । आत् । शीभ॑म् । स॒म्ऽअव॑ल्गत । तत् । आ॒प्नो॒त् । इन्द्र॑: । व॒: । य॒ती: । तस्मा॑त् । आप॑: । अनु॑ । स्थ॒न॒ ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत। तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनु ष्ठन ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । प्रऽइषिता: । वरुणेन । आत् । शीभम् । सम्ऽअवल्गत । तत् । आप्नोत् । इन्द्र: । व: । यती: । तस्मात् । आप: । अनु । स्थन ॥१३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यत्) जो (वरुणेन) वरुण देवता या आकाश का आवरण करनेवाले मेघ द्वारा (प्रेषिताः) प्रेरित हुए या भेजे गये हे आपः ! (शुभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर तुम गति करते हो, (तत्) तो (वः) तुम्हें (यती:) चलती हुई को (इन्द्रः) आदित्य (आप्नोत्) प्राप्त करता है, (तस्मात्) उस कारण से (आपः) हे जलो! (अनु) तत्पश्चात् (आपः स्तन) "आपः" तुम हो।
टिप्पणी -
[वरुण है अपांपतिः (अथर्व० ५।२४।४) अथवा "वरुणः" आकाश का आवरण करनेवाला मेघशीभम् क्षिप्रनाम (निघं० २।१५)। अवल्गत=वल्गु गत्यर्थः (भ्वादि:)। वर्षा के पश्चात् आप: जब मिलकर गति करते हैं, प्रवाहित होते हैं, तदनन्तर आदित्य निज रश्मियों द्वारा इन्हें प्राप्त करता है, मेघरुप में परिणत करता है। "आपन" क्रिया के कारण "आप:" नाम हुआ है। मन्त्र में "आप:" का निर्वचन हुआ है।]