अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - भगः, आदित्याः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - कल्याणार्थप्रार्थना
भग॑ ए॒व भग॑वाँ अस्तु दे॒वस्तेना॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम। तं त्वा॑ भग॒ सर्व॒ इज्जो॑हवीमि॒ स नो॑ भग पुरए॒ता भ॑वे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठभग॑: । ए॒व । भग॑ऽवान् । अ॒स्तु॒ । दे॒व: । तेन॑ । व॒यम् । भग॑ऽवन्त: । स्या॒म॒ । तम् । त्वा॒ । भ॒ग॒ । सर्व॑: । इत् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । स: । न॒: । भ॒ग॒ । पु॒र॒:ऽए॒ता । भ॒व॒ । इ॒ह ॥१६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
भग एव भगवाँ अस्तु देवस्तेना वयं भगवन्तः स्याम। तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीमि स नो भग पुरएता भवेह ॥
स्वर रहित पद पाठभग: । एव । भगऽवान् । अस्तु । देव: । तेन । वयम् । भगऽवन्त: । स्याम । तम् । त्वा । भग । सर्व: । इत् । जोहवीमि । स: । न: । भग । पुर:ऽएता । भव । इह ॥१६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(देवः) दाता (भग एव) भजनीय परमेश्वर ही (भगवान् अस्तु) ऐश्वर्यवान् हो, (तेन) उस द्वारा (वयम्) हम (भगवन्तः) ऐश्वर्यवाले (स्याम) हों। (भग) हे भजनीय! (सर्वः) मैं सर्वस्वरूप हुआ, (तम् त्वा इत्) उस तुझ का ही (जोहवीमि) पुनः-पुनः आह्वान करता हूँ, (भग) हे भजनीय! (सः) वह तू (इह) इस दानकर्म में (नः) हमारा (पुरः एता) अग्रगन्ता, अगुआ (भव) हो।
टिप्पणी -
[भावना यह है कि परमेश्वर ही दाता है, सब प्राणियों को दान दे रहा है, उसी के दान द्वारा सब प्राणी जीवित होते हैं। अतः हे परमेश्वर! तू ही सदा भगवान् अर्थात् ऐश्वर्यशाली हो, और तेरे दिये दान द्वारा ही हम भी ऐश्वर्यवान् हों। मनुष्यदाता की इच्छा पर है कि वह माँगनेवाले को धन दे या न दे। तू तो बिना मांगे सबको दे रहा है। अतः मैं भी सर्वरूप होकर, सबको अपना जानकर तेरा बार-बार आह्वान करता हूँ, ताकि मुझमें सर्वभावना सदा बनी रहे।]