अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
अ॒यं ते॒ योनि॑रृ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तो अरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ आ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ते॒ । योनि॑: । ऋ॒त्विय॑: । यत॑: । जा॒त: । अरो॑चथा: । तम् । जा॒नन् । अ॒ग्ने॒ । आ । रो॒ह॒ । अध॑ । न॒: । व॒र्ध॒य॒ । र॒यिम् ॥२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं ते योनिरृत्वियो यतो जातो अरोचथाः। तं जानन्नग्न आ रोहाथा नो वर्धया रयिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ते । योनि: । ऋत्विय: । यत: । जात: । अरोचथा: । तम् । जानन् । अग्ने । आ । रोह । अध । न: । वर्धय । रयिम् ॥२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्निनामक परमेश्वर! (अयम् ते योनिः) यह [हृदय] तेरा घर है, (ऋत्वियः) जिसेकि ऋतु अर्थात् काल प्राप्त हो गया है, (यतः जातः) जहाँ से प्रकट हुआ तू (अरोचथाः) प्रदीप्त होता है। (जानन्१) जानता हुआ (तम्) उस पर (आरोह२) तू आरोहण कर, (अध) तदनन्तर (नः रयिम्) हमारी सम्पत्ति को (वर्धय) बढ़ा।
टिप्पणी -
[परमेश्वर का नाम है अग्नि, वह अग्नि के सदृश प्रकाशित होता है (यजु:० ३२।१), हृदय-गृह में। योनिः गृहनाम (निघं० ३।४)। प्रार्थी परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि मेरे हृदय-गृह में तेरे प्रदीप्त होने का काल हो गया है, अत: तू प्रकाशित हो, और प्रकाशित होकर हम योगियों की अध्यात्मसम्पत्तियों को बड़ा] [१. "जानन्" द्वारा अग्नि को चेतन कहा है, अतः अग्नि प्राकृतिक अर्थात् जड़ नहीं। २. आरोहण का अर्थ है चढ़ना। वेद में चार पैरों पर खड़ी हस्तिनी के सदृश, चार स्तम्भों पर निर्मित शाला का कथन हुआ है (अथर्व० ९।३।१७), जिस पर आरोहण सीढ़ी द्वारा हो सकता है। इसलिए हृदय गृह पर परमेश्वर का आरोहण कहा है।]