अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
अग्ने॒ अच्छा॑ वदे॒ह नः॑ प्र॒त्यङ्नः॑ सु॒मना॑ भव। प्र णो॑ यच्छ विशां पते धन॒दा अ॑सि न॒स्त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । अच्छ॑ । व॒द॒ । इ॒ह । न॒: । प्र॒त्यङ् । न॒: । सु॒ऽमना॑: । भ॒व॒ । प्र । न॒: । य॒च्छ॒ । वि॒शा॒म् । प॒ते॒ । ध॒न॒ऽदा: । अ॒सि॒ । न॒: । त्वम् ॥२०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने अच्छा वदेह नः प्रत्यङ्नः सुमना भव। प्र णो यच्छ विशां पते धनदा असि नस्त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । अच्छ । वद । इह । न: । प्रत्यङ् । न: । सुऽमना: । भव । प्र । न: । यच्छ । विशाम् । पते । धनऽदा: । असि । न: । त्वम् ॥२०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि के सदृश प्रकाशमान परमेश्वर! (इह) इस जीवन में (न: अच्छ) हमारे अभिमुख होकर (वद) हमारे साथ वार्तालाप कर, (नः प्रत्यङ्) हमारे प्रति गति करता हुआ तू (सुमनाः भव) सुप्रसन्न हो। (विशांपते) हे प्रजाओं के पति! (नः प्रयच्छ) हमें प्रदान कर [धन], (त्वम्) तू (न:) हमारा (धनदाः असि) धनदाता है।
टिप्पणी -
[हृदय में प्रकट हुए परमेश्वर के साथ वार्तालाप सम्भव है, जबकि हृदयस्थ जीवात्मा और उसमें प्रकट परमेश्वर, एक-दूसरे के अभिमुख होते हैं। धन प्राकृतिक नहीं, अपितु अध्यात्म है।]