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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 24

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
    सूक्त - भृगुः देवता - वनस्पतिः, प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - समृद्धि प्राप्ति सूक्त

    उ॑पो॒हश्च॑ समू॒हश्च॑ क्ष॒त्तारौ॑ ते प्रजापते। तावि॒हा व॑हतां स्फा॒तिं ब॒हुं भू॒मान॒मक्षि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽऊ॒ह: । च॒ । स॒म्ऽऊ॒ह: । च॒ । क्ष॒त्तारौ॑ । ते॒ । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ । तौ । इ॒ह । आ । व॒ह॒ता॒म् । स्फा॒तिम् । ब॒हुम् । भू॒मान॑म् । अक्षि॑तम् ॥२४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपोहश्च समूहश्च क्षत्तारौ ते प्रजापते। ताविहा वहतां स्फातिं बहुं भूमानमक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽऊह: । च । सम्ऽऊह: । च । क्षत्तारौ । ते । प्रजाऽपते । तौ । इह । आ । वहताम् । स्फातिम् । बहुम् । भूमानम् । अक्षितम् ॥२४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 7

    भाषार्थ -
    (प्रजापते) उत्पन्न सन्तानों के रक्षक! [हे सद्गृहस्थ] (उपोह:) धन की प्राप्ति (च) और (समूहः) उसका समूहीकरण अर्थात् बढ़ाना, (ते) तेरे लिए, (क्षत्तारौ) क्षतिनद से तैरानेवाले हैं; (तौ) वे दोनों (इह) इस गृहस्थ में (स्फातिम्) समृद्धि को, (अक्षितम्) तथा न क्षीण होनेवाले (बहुम्) बहुत प्रकार की (भूमानम्) बहुतायत को (आ वहताम्) प्राप्त कराएँ,

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