अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः
देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
पुमा॑न्पुं॒सः परि॑जातोऽश्व॒त्थः ख॑दि॒रादधि॑। स ह॑न्तु॒ शत्रू॑न्माम॒कान्यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥
स्वर सहित पद पाठपुमा॑न् । पुं॒स: । परि॑ऽजात: । अ॒श्व॒त्थ: । ख॒दि॒रात् । अधि॑ । स: । ह॒न्तु॒ । शत्रू॑न् । मा॒म॒कान् । यान् । अ॒हम् । द्वेष्मि॑ । ये । च॒ । माम् ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुमान्पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि। स हन्तु शत्रून्मामकान्यानहं द्वेष्मि ये च माम् ॥
स्वर रहित पद पाठपुमान् । पुंस: । परिऽजात: । अश्वत्थ: । खदिरात् । अधि । स: । हन्तु । शत्रून् । मामकान् । यान् । अहम् । द्वेष्मि । ये । च । माम् ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(पुंसः) अभिवर्धनशील पिता से (पुमान्) अभिवर्धनशीलपुत्र (परिजातः) पैदा होता है, जैसेकि (खदिरात् अधि) खैर से (अश्वत्थः१) पीपल। (सः) वह अभिवर्धनशील पुत्र (मामकान्) मेरे (शत्रून् हन्तु) शत्रुओं का हनन करे, (यान्) जिनके साथ (अहम्) मैं (द्वेष्मि) द्वेष करता हूँ, (च) और (ये) जो (माम्) मेरे साथ द्वेष करते हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र के प्रारम्भ में "पुमान् पुंसः" का कथन हुआ है, अतः समग्र सूक्त में "पुमान् पुंसः" का भी वर्णन अभीष्ट प्रतीत होता है। "अश्वत्थः खदिरात्" तो दृष्टान्तरूप है। तथा देखो "संस्कारविधि: पुंसवन संस्कार।" जैसे पुत्र पिता के शत्रुओं का हनन करता है, वैसे अश्वत्थ अर्थात् खदिर२ से उत्पन्न अश्वत्थ भी रोगों का हनन करता है। मन्त्र २ से ८ तक में अश्वत्थ पद पठित है, तो भी इस दष्टान्त पद द्वारा दाष्टन्ति या उपमेयरूप में पुमान्-पुरुष भी अभिप्रेत है। [ १. अश्वत्थः -- Figtree (आप्टे)। Fig= सम्भवतः अञ्जीर। २. खदिर के कोटर अर्थात् गड़हे से उत्पन्न अश्वत्थ में खदिर की भी रोग निवारण शक्ति होती है और निज की भी]