अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः
देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
तेऽध॒राञ्चः॒ प्र प्ल॑वन्तां छि॒न्ना नौरि॑व॒ बन्ध॑नात्। न वै॑बा॒धप्र॑णुत्तानां॒ पुन॑रस्ति नि॒वर्त॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठते । अ॒ध॒राञ्च॑: । प्र । प्ल॒व॒न्ता॒म् । छि॒न्ना । नौ:ऽइ॑व । बन्ध॑नात् । न । वै॒बा॒धऽप्र॑नुत्तानाम् । पुन॑: । अ॒स्ति॒ । नि॒ऽवर्त॑नम् ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तेऽधराञ्चः प्र प्लवन्तां छिन्ना नौरिव बन्धनात्। न वैबाधप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम् ॥
स्वर रहित पद पाठते । अधराञ्च: । प्र । प्लवन्ताम् । छिन्ना । नौ:ऽइव । बन्धनात् । न । वैबाधऽप्रनुत्तानाम् । पुन: । अस्ति । निऽवर्तनम् ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(ते) वे शत्रु (अधराञ्चः) नीचे की ओर (प्र प्लवन्ताम्) शीघ्रता से प्रवाहित हो जाएं, (इव) जैसे (बन्धनात्) वन्धन से (छिन्ना) कटी (नौः) नौका [शीघ्रगामिनी नदी में शीघ्रता से प्रवाहित हो जाती है]। वैवाध=वैबाध, प्रणुत्तानाम्) विविध बाधनाओं से धकेले गयों का (पुनः) फिर (निवर्तनम्) लौट आना (न अस्ति) नहीं होता है।
टिप्पणी -
[प्रजा के शत्रु, जो कि विविध बाधाओं१ के कारण स्वराष्ट्र से प्रजा द्वारा धकेल दिये जाते हैं, उनका राष्ट्र में पुनरागमन नहीं होता, क्योंकि वे अधरगतिवाले होते हैं। अधराञ्चः पद द्विविधार्थक हैं। सायणाचार्य ने "वैबाध" का अर्थ खदिरोत्पन्न "अश्वत्थ" किया है, जोकि अविश्वसनीय है ।] [१. जो शासक प्रजा के कार्यों में बाधाएं उपस्थित करते हैं, वे प्रजा के शत्रु हैं, अतः प्रजा द्वारा निज राष्ट्र से धकेल दिये जाते हैं।]