अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - तारागणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
अ॒मू ये दि॒वि सु॒भगे॑ वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के। वि क्षे॑त्रि॒यस्य॑ मुञ्चतामध॒मं पाश॑मुत्त॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मू इति॑ । ये इति॑ । दि॒वि । सु॒भगे॒ इति॑ । सु॒ऽभगे॑ । वि॒ऽचृतौ॑ । नाम॑ । तार॑के॒ इति॑ । वि । क्षे॒त्रि॒यस्य॑ । मु॒ञ्च॒ता॒म् । अ॒ध॒मम् । पाश॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अमू ये दिवि सुभगे विचृतौ नाम तारके। वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठअमू इति । ये इति । दिवि । सुभगे इति । सुऽभगे । विऽचृतौ । नाम । तारके इति । वि । क्षेत्रियस्य । मुञ्चताम् । अधमम् । पाशम् । उत्ऽतमम् ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(अमू ये) वे दो जोकि (सुभगे) उत्तम भाग्यशाली हैं, (विचृतौ नाम तारके) और विचृत्त नामवाले दो तारा (दिवि) द्युलोक में हैं, वे (अधमम्) शरीर के अधोभाग के, (उत्तमम्) तथा ऊर्ध्वभाग के (क्षेत्रियस्य) क्षेत्रिय रोगसम्बन्धी (पाशम्) फंदे को (वि मुञ्चताम्) विमुक्त करें।
टिप्पणी -
[नाम=अथवा प्रसिद्ध" सुभगे=प्रकाशयुक्त होने से भाग्यशाली। विचृतौ=वि+चृत् (हिंसा), चृती हिंसाय्रन्थनयोः, तुदादिः)। "ये दो तारा, मूलनामक-नक्षत्र हैं" (सायण)। विचृतौ=वि+चृत्; क्विप+ द्विवचन। द्विवचन है नक्षत्र और तदधिष्ठान की अपेक्षा से (सायण) (अथर्व० २।८।१)। परन्तु मन्त्रानुसार ये दो तारा हैं, न कि मूखनक्षत्र तथा तदधिष्ठान। ये दो तारा वृश्चिक-राशि की पूंछ के डंक में है। क्षेत्रिय-रोग सम्भवतः शारीरिक है; क्षेत्र है शरीर "इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते" (गीता १३।१)। जिस काल में इन दो ताराओं का उदय हो, उस काल में क्षत्रिय रोग की चिकित्सा करने का विधान हुआ है। चिकित्सा का सम्बन्ध बाल के साथ भी होता है। काल का ध्यान न कर चिकित्सा करने से चिकित्सा अधिक लाभकारी नहीं होती।]