अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः। योऽस्येशे॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
स्वर सहित पद पाठय: आ॒त्म॒ऽदा: । ब॒ल॒ऽदा: । यस्य॑ । विश्वे॑ । उ॒प॒ऽआस॑ते । प्र॒ऽशिष॑म् । यस्य॑ । दे॒वा: । य: । अ॒स्य । ईशे॑ । द्वि॒ऽपद॑: । य: । चतु॑:ऽपद: । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। योऽस्येशे द्विपदो यश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठय: आत्मऽदा: । बलऽदा: । यस्य । विश्वे । उपऽआसते । प्रऽशिषम् । यस्य । देवा: । य: । अस्य । ईशे । द्विऽपद: । य: । चतु:ऽपद: । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यः) जो (आत्मदाः) (शरीरों में] आत्मा का प्रदान करता है [जन्म देता है], (बलदाः) तथा बल प्रदान करता है, (विश्वे) सब (यस्य) जिसके (प्रशिषम्) उत्तम शासन की (उपासते) उपासना करते हैं (यस्य देवाः) देव जिसके अधीन हैं। (यः) जो (अस्य द्विपदः) इस दो-पाये मनुष्य-पक्षी आदि का (ईशे) अधीश्वर है, (यः) जो (चतुष्पदः) चौपाये गो आदि का अधीश्वर है, उस (कस्मै देवाय) किस देव के लिए, (हविषा) हवि द्वारा, (विधेम) हम परिचर्या अर्थात् सेवा भेंट करें। विधेम= परिचरणकर्मा (निघं० ३।५), परिचरणम्=सेबा।
टिप्पणी -
[उपासना=उप (समीपे) +आसन, (बैठना), अर्थात् ध्यान में उसके समीप बैठना। (कस्मै) उपासक, रचना को देखकर देव की सत्ता को तो स्वीकार करता है, परन्तु उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति को प्राप्त नहीं हो रहा, इसलिए वह स्वयम् से प्रश्न करता है कि वह देव कौनसा है, और कैसा है।]