अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 7
सूक्त - मृगारः
देवता - वायुः, सविता
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
उ॒प श्रेष्ठा॑ न आ॒शिषो॑ दे॒वयो॒र्धाम॑न्नस्थिरन्। स्तौमि॑ दे॒वं स॑वि॒तारं॑ च वा॒युं तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । श्रेष्ठा॑: । न॒: । आ॒ऽशिष॑: । दे॒वयो॑: । धाम॑न् । अ॒स्थि॒र॒न् । स्तौमि॑ । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । च॒ । वा॒युम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
उप श्रेष्ठा न आशिषो देवयोर्धामन्नस्थिरन्। स्तौमि देवं सवितारं च वायुं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । श्रेष्ठा: । न: । आऽशिष: । देवयो: । धामन् । अस्थिरन् । स्तौमि । देवम् । सवितारम् । च । वायुम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(देवयोः) दिव्यगुणोंवाले सविता और वायु के (धामन्) अपने-अपने स्थान में (नः) हमारे (श्रेष्ठा आशिषः) श्रेष्ठ अभीष्ट (उप अस्थिरन्) स्थिररूप में उपस्थित हैं; अत: (देवम्) दिव्यगुणी (सवितारम्, वायुम्, च) सविता और वायु की (स्तौमि) मैं स्तुति करता हूँ, उनके गुणों का कथन करता हूँ। (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी -
[आशिषः= "आङः शासु इच्छायाम्" (अदादिः), अभीष्ट; अथवा आशाएँ तथा आशीर्वाद। वायु का 'धाम' अर्थात् स्थान है, अंतरिक्ष; तथा सविता का स्थान है द्युलोक। वायु के स्थान से शुद्धवायु हमारे श्वास-प्रश्वास का हेतु है, तथा जल और मेघ का भी। सविता के स्थान से ताप और प्रकाश, और तद्-द्वारा मेघ की प्राप्ति अन्तरिक्ष में होती, और तद्-द्वारा उदक की प्राप्ति होती है। ये हमारे अभीष्ट हैं। श्रेष्ठ अभीष्टों की प्राप्ति से पापों से छुटकारा प्राप्त होता है, यतः वे श्रेष्ठ हैं, अश्रेष्ठ अभीष्टों द्वारा पाप प्राप्त होते हैं।]