अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
सूक्त - मृगारोऽअथर्वा वा
देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
स॑हस्रा॒क्षौ वृ॑त्र॒हणा॑ हुवे॒हं दू॒रेग॑व्यूती स्तु॒वन्ने॑म्यु॒ग्रौ। याव॒स्येशा॑थे द्वि॒पदो॒ यौ चतु॑ष्पद॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षौ । वृ॒त्र॒ऽहना॑ । हु॒वे॒ । अ॒हम् । दू॒रेग॑व्यूती॒ इति॑ दू॒रेऽग॑व्यूती । स्तु॒वन् । ए॒मि॒ ।उ॒ग्रौ । यौ । अ॒स्य । ईशा॑थे॒ इति॑ । द्वि॒ऽपद॑: । यौ । चतु॑:ऽपद: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राक्षौ वृत्रहणा हुवेहं दूरेगव्यूती स्तुवन्नेम्युग्रौ। यावस्येशाथे द्विपदो यौ चतुष्पदस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअक्षौ । वृत्रऽहना । हुवे । अहम् । दूरेगव्यूती इति दूरेऽगव्यूती । स्तुवन् । एमि ।उग्रौ । यौ । अस्य । ईशाथे इति । द्विऽपद: । यौ । चतु:ऽपद: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सहस्राक्षः) हजारों आँखों वाले अर्थात् सर्वद्रप्टा, (वृत्रहणा) छात्रों का हनन करनेवाले, (दूरे) दूर तक (गव्यूती) ऐन्द्रियिक विषयों तथा इन्द्रियों की गतियों का विस्तार करनेवाले (उग्रौ) कर्मफल प्रदान में उग्ररूप, [भव और शर्व] का (अहम्) मैं (हुवे) आह्वान करता हूँ, और (स्तुवन्) भव तथा शर्व की स्तुति करता हुआ (एमि) आता-जाता हूँ। (यौ) जो तुम दोनों (अस्य) इस (द्विपदः) दोपाये, (यौ) जो तुम दोनों (चतुष्पद) चौ-पाये जगत के (ईशाथे) अधीश्वर हो, इनका शासन करते हो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, छुड़ाओ।
टिप्पणी -
[गव्यूती= प्रथमा विभक्ति का द्विवचनान्त रूप। अन्यत्र "गव्यूति" पद पठित है (अथर्व० १६।३।६: १८।१।५०)। गव्यूति:= गो [गावः इन्द्रियाणि]+ ऊतिः [वेञ्१ तन्तुसन्ताने, भ्वादिः] सन्तान अर्थात् विस्तार अर्थ अभिप्रेत है। अत: गव्यूति:= ऐन्द्रियिक विषयों का विस्तार; गव्यूति= ऐन्द्रियिक विपयों का विस्तार करनेवाले भव और शर्व। ऐन्द्रियिक विषयों का विस्तार किया है हमारे जीवनों के लिए, नकि उनमें लिप्त होकर पाप-कर्म करने के लिए।] [१. ऊति:= weaving, sewing (आप्टे) अतः "वेञ् तन्तुसंताने"। अथवा गतिः "अव रक्षण-गति-कान्ति" आदि (भ्वादिः)। 'गव्यूति' में वेञ्-और-अव' दोनों के अर्थ दिए हैं। गव्यूति: का प्रसिद्धार्ध है "एक क्रोश अर्थात् दो मील" (आप्टे), इस अर्थ में प्रवृत्ति निमित्त है सम्भवतः हृष्ट-पुष्ट बैल के गर्जन के श्रवण की अवधि। गो+अव (श्रवणे) भ्वादिः।]