अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
सूक्त - मृगारोऽअथर्वा वा
देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
यावा॑रे॒भाथे॑ ब॒हु सा॒कमग्रे॒ प्र चेदस्रा॑ष्ट्रमभि॒भां जने॑षु। याव॒स्येशा॑थे द्वि॒पदो॒ यौ चतु॑ष्पद॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयौ । आ॒रे॒भाथे॒ । इत्या॑ऽरे॒भाथे॑ । ब॒हु॒ । सा॒कम् । अग्रे॑ । प्र । च॒ । इत् । अस्रा॑ष्ट्रम् । अ॒भि॒ऽभाम् ।जने॑षु ।यौ । अ॒स्य । ईशा॑थे॒ इति॑ । द्वि॒ऽपद॑: । यौ । चतु॑:ऽपद: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यावारेभाथे बहु साकमग्रे प्र चेदस्राष्ट्रमभिभां जनेषु। यावस्येशाथे द्विपदो यौ चतुष्पदस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयौ । आरेभाथे । इत्याऽरेभाथे । बहु । साकम् । अग्रे । प्र । च । इत् । अस्राष्ट्रम् । अभिऽभाम् ।जनेषु ।यौ । अस्य । ईशाथे इति । द्विऽपद: । यौ । चतु:ऽपद: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
हे भव और शर्व! (यौ) जिन तुम दो ने (अग्रे) सृष्ट्यारम्भ में, (साकम्) एक साथ (बहु) बहुतों का (आरेभाथे) प्रारम्भ किया, निर्माण किया, (च) और (जनेषु) प्रजाजनों में (अभिभाम्) ज्ञानदीप्ति का (इत्) भी (प्र अस्राष्टम्) प्रकर्षरूप में सर्जन किया, (यौ) जो तुम दो (अस्य) इस (द्विपदः) दो-पाये जगत् के (यौ) जो तुम दो (चतुष्पद) चौ-पाये जगत् के (ईशाथे) अधीश्वर हो, इनका शासन करते हो, (तौ) वे तुम दोनों (ने:) हमें (अंहसः) पापों से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, छुड़ाओ।
टिप्पणी -
[सृष्टि के प्रारम्भ में बहुत पदार्थ एक साथ पैदा हुए, और मानुष प्रज्ञा के उत्पन्न होने पर उन्हें वेदरूपी ज्ञान प्रकाश भी दिया गया। प्रारम्भ में प्रकृति की साम्यावस्था का विनाश तो 'शर्व' द्वारा हुआ, तत्पश्चात् सृष्टि का प्रारम्भ 'भव' द्वारा हुआ। भव और शर्व एक ही परमेश्वर के दो स्वरूप हैं। दो स्वरूपों को दर्शाने के लिए 'भवशर्वौ' में द्विवचनान्त का प्रयोग हुआ है। दोनों स्वरूपों द्वारा अभिधेय एक परमेश्वर ही है।]