अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अतिमृत्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त
यमो॑द॒नं प्र॑थम॒जा ऋ॒तस्य॑ प्र॒जाप॑ति॒स्तप॑सा ब्र॒ह्मणेऽप॑चत्। यो लो॒कानां॒ विधृ॑ति॒र्नाभि॒रेषा॒त्तेनौ॑द॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । ओ॒द॒नम् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । तप॑सा । ब्र॒ह्मणे॑ । अप॑चत् । य: । लो॒काना॑म् । विऽधृ॑ति: । न । अ॒भि॒ऽरेषा॑त् । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यमोदनं प्रथमजा ऋतस्य प्रजापतिस्तपसा ब्रह्मणेऽपचत्। यो लोकानां विधृतिर्नाभिरेषात्तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । ओदनम् । प्रथमऽजा: । ऋतस्य । प्रजाऽपति: । तपसा । ब्रह्मणे । अपचत् । य: । लोकानाम् । विऽधृति: । न । अभिऽरेषात् । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(ऋतस्य) सत्य के (प्रथमजा:) प्रथमोत्पादक अर्थात् प्रथमाश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम में उत्पादक और (प्रजापतिः) प्रजाओं अर्थात् सन्तानों के पालक तथा रक्षक गृहस्थी ने, (ब्रह्मणे) ब्रह्म की प्राप्ति के लिए, (यम्, ओदनम्) जिस ओदन-परमेश्वर को, (तपसा) तपस्या द्वारा (अपचत्१) निज जीवन में परिपक्व किया, तथा (य:) जो ओदन (लोकानाम्) लोकलोकान्तरों का (विधृतिः) विशेषेण धारक है, (न अभिरेषात्) वह [मेरे लिए] नष्ट न हो, (तेन ओदनेन) उस ओदन द्वारा (मृत्युम् अति) मृत्यु का अतिक्रमण कर, (तराणि) मैं तैर जाऊँ [भवसागर को]।
टिप्पणी -
[विधृतिः= अथवा जो पृथक् पृथक् वर्तमान लोकों का धारक है। अभिरेषात्= अभि+रिष् (हिंसायाम्) +आट्, लेटि। गृह-परिपक्व ओदन तो हिंसित हो जाता है, विकृत हो जाता है, परन्तु तपश्चर्या द्वारा परिपक्व किया परमेश्वरौदन नष्ट नहीं होता। अथवा प्रार्थना की गई है कि तपश्चर्या द्वारा प्रत्यक्षीकृत परमेश्वर, हमारी असावधानता द्वारा, कहीं पुनः अप्रत्यक्ष न हो जाए। यद्यपि गृह-परिपक्व ओदन भी मृत्यु से बचाता है, दीर्घ जीवन कर देता है, तो भी सूक्त ३५ के मन्त्रों में मृत्यु का अतिक्रमण करना, स्पष्ट रूप में, मोक्षाभिधायक है।] [१. "पच्" का प्रयोग अन्न के पकाने से अन्यत्र भी होता है, यथा कर्मविपाक, ध्यानाभ्यास का परिपाक आदि।]