अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
प॒वस्तै॑स्त्वा॒ पर्य॑क्रीणन्दू॒र्शेभि॑र॒जिनै॑रु॒त। प्र॒क्रीर॑सि॒ त्वमो॑ष॒धेऽभ्रि॑खाते॒ न रू॑रुपः ॥
स्वर सहित पद पाठप॒वस्तै॑: । त्वा॒ । परि॑ । अ॒क्री॒ण॒न् । दू॒र्शेभि॑: । अ॒जिनै॑: । उ॒त । प्र॒ऽक्री: । अ॒सि॒ । त्वम् । ओ॒ष॒धे॒ । अभ्रि॑ऽखाते । न । रू॒रु॒प॒: ॥७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्तैस्त्वा पर्यक्रीणन्दूर्शेभिरजिनैरुत। प्रक्रीरसि त्वमोषधेऽभ्रिखाते न रूरुपः ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्तै: । त्वा । परि । अक्रीणन् । दूर्शेभि: । अजिनै: । उत । प्रऽक्री: । असि । त्वम् । ओषधे । अभ्रिऽखाते । न । रूरुप: ॥७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(अभ्रिखाते) कुदाली द्वारा [जड़ समेत] खोदी गई (औषधी) हे औषधि ! (त्वा) तुझे (पवरतैः) रक्षा के वस्त्रों द्वारा, (दुर्शेभिः)१ दूर्शों द्वारा (उत) तथा (अजिनै:) मृगछालों द्वारा (पर्यक्रीणन्) उन्होंने खरीदा है, अतः (प्रक्रीः असि) खरीदी [दासीवत्] (त्वम्) तु है, अतः (न रूरुपः) तूने मूर्छित नहीं किया।
टिप्पणी -
[खरीदी दासी मालिक को नुकसान नहीं पहुंचाती, अपितु उसकी सेविका होती है, अतः तुने मूर्छित नहीं किया। पवस्तैः=पा (रक्षणे) वस्तैः (वस्त्रै:) अर्थात् शरीर की रक्षा करनेवाले वस्त्रों द्वारा।] [१. दूर्शेभी: = सम्भवतः दलालों द्वारा। पवस्त और अजिन के सहयोग के कारण 'दूर्श' भी बहुमूल्य वस्तु प्रतीत होती है। दूर्श= दुशाले।]