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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 105/ मन्त्र 2
यथा॒ बाणः॒ सुसं॑शितः परा॒पत॑त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त पृथि॒व्या अनु॑ सं॒वत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । बाण॑: । सुऽसं॑शित: । प॒रा॒ऽपत॑ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । पृ॒थि॒व्या: । अनु॑ । स॒म्ऽवत॑म् ॥१०५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा बाणः सुसंशितः परापतत्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत पृथिव्या अनु संवतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । बाण: । सुऽसंशित: । पराऽपतति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । पृथिव्या: । अनु । सम्ऽवतम् ॥१०५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 105; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यथा) जैसे (सु संशितः) उत्तम साधित (वाण:) शब्द (आशुमत्) शीघ्र (परा पतति) दूर के प्रदेशों तक गति करता है, पहुंच जाता है, (एव= एवम्) इस प्रकार (कासे) हे शासन व्यवस्था ! (त्वम्) तू (पृथिव्याः) पृथिवी की (संवतम्) संप्राप्ति की (अनु) अनुकुलता तक (प्र पत) गति कर, पहुंच।
टिप्पणी -
[वाणः=शब्दः। यथा “वण शब्दार्थ:" (भ्वादिः), अर्थात् वाणी। शब्द या वाणी, यन्त्रों द्वारा सुसाधित होकर शीघ्र दूर-दूर के प्रदेशों तक पहुंच जाती है, जैसे कि टेलीफोन तथा रेडियो और टेलीविजन द्वारा वर्तमानकाल में पहुंच रही है। इसी प्रकार शासन व्यवस्था को भी, समग्र पृथिवी पर, जहां तक पृथिवी की सम्यक्-प्राप्ति१ है लागू करना चाहिये। संवतम्= सम्प्राप्तम् (सायण, अथर्व ६।२९।३)।] [१. पृथिवी सब ओर से समुद्रों से घिरी हुई है, इन समुद्रों के भीतर पृथिवी की सम्प्राप्ति होती है। वेदों में समग्र पृथिवी पर शासन व्यवस्था को लागू करने वाले को "एकराट्" तथा "जनराद्" कहते हैं।]