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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
यथा॒ मनो॑ मनस्के॒तैः प॑रा॒पत॑त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त॒ मन॒सोऽनु॑ प्रवा॒य्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मन॑: । म॒न॒:ऽके॒तै: । प॒रा॒ऽपत॑ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । मन॑स: । अनु॑ । प्र॒ऽवा॒य्य᳡म् ॥१०५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मनो मनस्केतैः परापतत्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत मनसोऽनु प्रवाय्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मन: । मन:ऽकेतै: । पराऽपतति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । मनस: । अनु । प्रऽवाय्यम् ॥१०५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 105; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यथा) जैसे (आशुमत्) वेगयुक्त (मनः) मन (मनस्केतै:) निज मानसिक ज्ञानों द्वारा (परापतति) दूर के प्रदेशों तक गति करता है, (एव) इसी प्रकार (कासे) हे शासन व्यवस्था ! (त्वम्) तू (मनसः) मन के (प्रवाय्यम्) दूर के गन्तव्य प्रदेशों के (अनु) अनुरूप (प्रपत) दूर तक गति कर, पहुंच। पत= पत्लृ गतौ (भ्वादिः)।
टिप्पणी -
[मन्त्र में "कासा" का वर्णन है "कासा" का प्रसिद्ध अर्थ है "खांसी"; कासृ शब्दकुत्सायाम् (भ्वादिः)। परन्तु सूक्त में खांसी अर्थ उपपन्न नहीं प्रतीत होता। "कासा" का अर्थ "शासन व्यवस्था' भी सम्भव है जोकि सूक्त में अधिक समन्वित होता है। "कासा" =कसि गतिशासनयोः, कस इत्येके (अदादिः)। कस+ घञ् + टाप्= शासन व्यवस्था वर्तमान में जैसे भिन्न-भिन्न राज्यों की दृष्टि से समुद्र और वायुमण्डल में शासन व्यवस्था लागू है, वैसे उस दूर की ऊर्ध्वदिशा में भी शासन व्यवस्था लागू होनी चाहिये जहां तक कि मनुष्य पहुंच सकता है और मन की वास्तविक गति या पहुंच सम्भव है। ताकि मनुष्यों में वहां तक पहुंच कर भी युद्ध न हो सके, यह मन्त्र का अभिप्राय है। वर्तमान काल के "Starwar" को रोकना, इस व्यापी शासन व्यवस्था द्वारा सम्भव हो सकता है ]।