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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 105/ मन्त्र 3
यथा॒ सूर्य॑स्य र॒श्मयः॑ परा॒पत॑न्त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त समु॒द्रस्यानु॑ विक्ष॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सूर्य॑स्य । र॒श्मय॑: । प॒रा॒ऽपत॑न्ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । स॒मु॒द्रस्य॑ । अनु॑ । वि॒ऽक्ष॒रम् ॥१०५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सूर्यस्य रश्मयः परापतन्त्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत समुद्रस्यानु विक्षरम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सूर्यस्य । रश्मय: । पराऽपतन्ति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । समुद्रस्य । अनु । विऽक्षरम् ॥१०५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 105; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यथा) जैसे (सूर्यस्य रश्मयः) सूर्य की रश्मियां (आशुमत्) शीघ्रता से (परापतन्ति) दूर के प्रदेशों तक गति करती हैं, (एवा= एवम्) इसी प्रकार (कासे) हे शासनव्यवस्था! (त्वम्) तू (समुद्रस्य) समुद्र [की लहरों] के (विक्षरम्) विविध संचलन स्थानों को (अनु) लक्ष्य करके (प्र पत) शीघ्रता से पहुंच, वहां तक गति कर।
टिप्पणी -
[सूक्त में, पृथिवी की ऊर्ध्व दिशा में, समुद्रों से घिरी पृथिवी पर, तथा समुद्रों पर शासन व्यवस्था की व्याप्ति का वर्णन हुआ है। विक्षरम्= वि+क्षर संचलने (भ्वादिः)]।