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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 111/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त
पुन॑स्त्वा दुरप्स॒रसः॒ पुन॒रिन्द्रः॒ पुन॒र्भगः॑। पुन॑स्त्वा दु॒र्विश्वे॑ दे॒वा यथा॑नुन्मदि॒तोऽस॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठपुन॑: । त्वा॒ । दु॒: । अ॒प्स॒रस॑: । पुन॑: । इन्द्र॑: । पुन॑: । भग॑: । पुन॑: ।त्वा॒ । दु॒: । विश्वे॑ । दे॒वा: । यथा॑ । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑सि ॥१११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनस्त्वा दुरप्सरसः पुनरिन्द्रः पुनर्भगः। पुनस्त्वा दुर्विश्वे देवा यथानुन्मदितोऽससि ॥
स्वर रहित पद पाठपुन: । त्वा । दु: । अप्सरस: । पुन: । इन्द्र: । पुन: । भग: । पुन: ।त्वा । दु: । विश्वे । देवा: । यथा । अनुत्ऽमदित: । अससि ॥१११.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 111; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(त्वा) तुझे (अप्सरसः) अप्सराओं ने (पुनः) फिर (दुः) दिया है, (इन्द्रः) इन्द्र ने (पुनः) फिर, (भगः) भग ने (पुनः) फिर, (विश्वे देवाः) सब देवों ने (पुन:) फिर (त्वा) तुझे (दुः) मेरे प्रति दिया है, (यथा= यदा) जब कि (अनुन्मदित) उन्माद रहित (अससि) तू हो गया है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में प्राकृतिक और अध्यात्म शक्तियों की सहायता द्वारा उन्माद से रहित होने का कथन हुआ है। अप्सरसः = "अग्निः गन्धर्वः, ओषधयः अप्सरसः। सूर्यः गन्धर्वः, मरीचय अप्सरसः। चन्द्रमा गन्धर्वः, नक्षत्राणि अप्सरसः। वात: गन्धर्वः, आप: अप्सरसः। यज्ञः गन्धर्वः, दक्षिणा अप्सरसः। मनः गन्धर्वः, ऋक्सामानि अप्सरसः " (यजु० १८।३८-४३)। इन्द्र:= विद्युत्। विद्युत् के प्रयोग द्वारा या तत्कृत वर्षा जल द्वारा चिकित्सा। इन्द्र अन्तरिक्ष स्थानी देवता है (निरुक्त १०।१।८) भगः = "तस्य कालः प्राग त्सर्पणात्" (निरुक्त १२।२। १३)। अर्थात् सूर्योदय से पूर्व का सूर्य का काल, यह प्रभात काल है। इस काल में भ्रमण करने से भी उन्माद से राहित्य हो जाता है। प्रभात काल के भ्रमण से "सप्त आपः" दिव्यगुणी हो कर पाप प्रवृत्ति से प्रमुक्त कर देते हैं (अथर्व० १४।२।४३-४८)। उन्माद पाप का ही तो परिणाम है (मन्त्र ३) ["सप्त आप:" के लिये देखो अथथ्व भाष्य (१४।२।४५)। अप्सरसं:- ओषधयः, मरीचयः, आपः, ऋक्सामानि।]