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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 116/ मन्त्र 3
यदी॒दं मा॒तुर्यदि॑ पि॒तुर्नः॒ परि॒ भ्रातुः॑ पु॒त्राच्चेत॑स॒ एन॒ आग॑न्। याव॑न्तो अ॒स्मान्पि॒तरः॒ सच॑न्ते॒ तेषां॒ सर्वे॑षां शि॒वो अ॑स्तु म॒न्युः ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑। इ॒दम् । मा॒तु: । यदि॑ । वा॒ । पि॒तु: । न॒: । परि॑ । भ्रातु॑: । पु॒त्रात् । चेत॑स: । एन॑: । आ॒ऽअग॑न् । याव॑न्त: । अ॒स्मान् । पि॒तर॑: । सच॑न्ते । तेषा॑म् । सर्वे॑षाम् । शि॒व: । अ॒स्तु॒ । म॒न्यु: ॥११६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यदीदं मातुर्यदि पितुर्नः परि भ्रातुः पुत्राच्चेतस एन आगन्। यावन्तो अस्मान्पितरः सचन्ते तेषां सर्वेषां शिवो अस्तु मन्युः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि। इदम् । मातु: । यदि । वा । पितु: । न: । परि । भ्रातु: । पुत्रात् । चेतस: । एन: । आऽअगन् । यावन्त: । अस्मान् । पितर: । सचन्ते । तेषाम् । सर्वेषाम् । शिव: । अस्तु । मन्यु: ॥११६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 116; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यदि) यदि (इदम्) यह (एनः) पापयुक्त अन्न (चेतसः) ज्ञानवाली (मातुः) माता से, (यदि वा) अथवा (पितुः) पिता से, (परि भ्रातुः) भ्राता से, (पुत्रात् च) और पुत्र से (नः) हमें (आगन्) आया है, प्राप्त हुआ है, (यावन्तः) जितने भी (पितरः१) रक्षक अर्थात हमारे पालक (अस्मान् सचन्ते) हमारे सम्बन्धी हैं (तेषाम् सर्वेषाम्) उन सब का (मन्युः) हमारे प्रति किया क्रोध (शिवः२) कल्याणकारी अर्थात् सुखदायक (अस्तु) हो, अर्थात् हमारे लिये दुःखदायक न हो।
टिप्पणी -
[चेतसः का सम्बन्ध माता, पिता, भाई, पुत्र, इन सब के साथ है, अर्थात् ये सब यह जानते हैं कि कृषि से प्राप्त अन्न की आहुतियां प्रथम परमेश्वर को समर्पित कर कृष्यन्न का भोग करना चाहिये। परन्तु इन सब ने जानते हुए भी समर्पण नहीं किया। अतः इन द्वारा प्राप्त अन्न एनः है, पापयुक्त है। ऐसा अन्न न ग्रहण करने पर, अन्न के लिए परवशी हम, इन सब के मन्यु के पान बने हैं। शिवम् सुखनाम (निघं० ३।६)।] [१. यह कथन स्वभावसिद्ध है। ये हमारे पितर है, रक्षक है, अत: उन का मन्यु ऐसा न होगा, जो कि दुःखदायक हो। २. इदं तत् अनृण:= अयं सः अहम् अनृणः। "इदानीं तेन ऋणेन अनृणः" (सायणः)।]