अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 122/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगु
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - तृतीयनाक सूक्त
ए॒तं भा॒गं परि॑ ददामि वि॒द्वान्विश्व॑कर्मन्प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॑। अ॒स्माभि॑र्द॒त्तं ज॒रसः॑ प॒रस्ता॒दच्छि॑न्नं॒ तन्तु॒मनु॒ सं त॑रेम ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । भा॒गम् । परि॑ । द॒दा॒मि॒ । वि॒द्वान् । विश्व॑ऽकर्मन् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ । अ॒स्माभि॑: । द॒त्तम् । ज॒रस॑: । प॒रस्ता॑त् । अच्छि॑न्नम् । तन्तु॑म् । अनु॑ । सम् । त॒रे॒म॒ ॥१२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं भागं परि ददामि विद्वान्विश्वकर्मन्प्रथमजा ऋतस्य। अस्माभिर्दत्तं जरसः परस्तादच्छिन्नं तन्तुमनु सं तरेम ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । भागम् । परि । ददामि । विद्वान् । विश्वऽकर्मन् । प्रथमऽजा: । ऋतस्य । अस्माभि: । दत्तम् । जरस: । परस्तात् । अच्छिन्नम् । तन्तुम् । अनु । सम् । तरेम ॥१२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 122; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(विश्वकर्मन्) हे विश्व के कर्त्ता ! तू (ऋतस्य) सत्यज्ञान का (प्रथमजाः) प्रथमजनयिता है, (विद्वान्) यह जानता हुआ (एतम् भागम्) इस भाग को (परिददामि) [तेरे नाम पर] मैं दान में देता हूं। (अस्माभिः) हम पारिवारिकजनों द्वारा (दत्तम्) दिया गया यह भाग, (अरसः परस्तात्) हमारी जरावस्था के पश्चात् भी, (अच्छिन्नम्, तन्तुम्) न करें तानों के विस्तार रूप में रहे, (अनु) तत्पश्चात् (सं तरेम) हम सब दाता, भवसागर तैर जाय।
टिप्पणी -
[परिवार की आमदनी का एक निश्चित भाग, परिवार का मुखिया दान रूप में देता है, और परमेश्वर के नाम पर गुप्तरूप में देता है, निजनाम प्रकाशित नहीं करता। यह सात्विक दान है। जरावस्था के पश्चात् भी शेष पारिवारिकजन अच्छिन्नरूप में दान देने की पारिवारिक प्रथा को जारी रखते हैं, और जरापन्न व्यक्ति गृहत्याग कर या गृह में ही रहते हुए, मोक्ष साधक जीवन चर्या कर, भवसागर से तैर जाने के अभिलाषी हैं।]