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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
सूक्त - शौनक्
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - बृहतीगर्भा ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अक्षिरोगभेषज सूक्त
तौवि॑लि॒केऽवे॑ल॒यावा॒यमै॑ल॒ब ऐ॑लयीत्। ब॒भ्रुश्च॑ ब॒भ्रुक॑र्ण॒श्चापे॑हि॒ निरा॑ल ॥
स्वर सहित पद पाठतौवि॑लिके । अव॑ । ई॒ल॒य॒ । अव॑ । अ॒यम् । ऐ॒ल॒ब: । ऐ॒ल॒यी॒त् । ब॒भ्रु: । च॒ । ब॒भ्रुऽक॑र्ण: । च॒ । अप॑ । इ॒हि॒ । नि: । आ॒ल॒ ॥१६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तौविलिकेऽवेलयावायमैलब ऐलयीत्। बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्चापेहि निराल ॥
स्वर रहित पद पाठतौविलिके । अव । ईलय । अव । अयम् । ऐलब: । ऐलयीत् । बभ्रु: । च । बभ्रुऽकर्ण: । च । अप । इहि । नि: । आल ॥१६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(तौविलिके) हे हिंसाकारिणी प्रकृति ! ( अवेलय =अव, इलय) तू अवाङ्-मुख होकर क्षिप्त हो जा, हट जा, (अयम् ) यह ( ऐलवः) प्रेरित हुआ जीवात्मा (अव, ऐलयीत् ) तेरे स्वरूप को अवगत करके तुझ से विमुख प्रेरित हो चुका है। (च) तथा (बभ्रु:) शरीर का भरण-पोषण करने वाला जीवात्मा (च) और (बभ्रु: कर्णः) शरीर का भरण-पोषण करने वाला कर्ण आदि इन्द्रियसमूह दोनों ही [ तुझ से विमुख हो चुके हैं, (अपेहि) अतः तू अपगत हो जा, (निराल) तू निश्चयेन निवारित१ हो जा।
टिप्पणी -
[तौविलिका = तुर्वी हिंसायाम् (भ्वादिः) +ठञ् ( वृद्धि ञित् होने से; और "ठ" को इक् आदेश);" "र्" को "ल्" रलयोरभेदः, रकार और वकार वर्णों का व्यत्यास। अवेलय = अव+ इल ( क्षेपणे, तुदादिः) । ऐलव:, ऐलयीत् =इल प्रेरणे (चुरादिः)। निराल= निर् + आ + अल वारणे (भ्वादिः)। अभिप्राय यह कि जीवात्मा ने प्रकृति का स्वरूप जब जान लिया कि प्रकृति हिंसाकारिणी है. तब वह प्रकृति से विमुख हो जाता है, और इन्द्रियसमूह भी प्रकृतिप्रदत्त भोगों से विमुख हो कर और अधिक भोग नहीं चाहता]। [१. अल भूषणपर्याप्ति "वारणेषु" (स्वादिः)। निराल=निर+आ+अल (वारणे)।]