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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
सूक्त - शौनक्
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अक्षिरोगभेषज सूक्त
वि॒हह्लो॒ नाम॑ ते पि॒ता म॒दाव॑ती॒ नाम॑ ते मा॒ता। स हि॑न॒ त्वम॑सि॒ यस्त्वमा॒त्मान॒माव॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽहह्ल॑: । नाम॑ । ते॒ । पि॒ता । म॒दऽव॑ती । नाम॑ । ते॒ । मा॒ता । स: । हि॒न॒ । त्वम् । अ॒सि॒ । य: । त्वम्। आ॒त्मान॑म् । आव॑य: ॥१६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
विहह्लो नाम ते पिता मदावती नाम ते माता। स हिन त्वमसि यस्त्वमात्मानमावयः ॥
स्वर रहित पद पाठविऽहह्ल: । नाम । ते । पिता । मदऽवती । नाम । ते । माता । स: । हिन । त्वम् । असि । य: । त्वम्। आत्मानम् । आवय: ॥१६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
[हे जीवात्मन् !] (विहह्ल:१) विशेष आह्लाद वाला [परमेश्वर] (ते) तेरा (पिता) पिता है, (मदावती) मदमस्त कर देने वाली [प्रकृति] (ते माता) तेरी माता है। (सः) वह तू (हिन) स्वयम् अपनी वृद्धि कर, (त्वम्, असि) तू तो [प्रकृति से]२ पृथक् है, ( यस्त्वम् ) जो तू ने कि (आत्मानम्) निज आत्म-स्वरूप को (आवयः) भक्षित सा कर लिया है, भुला सा दिया हुआ है।
टिप्पणी -
[परमेश्वर विशेषेण सुखस्वरूप है, प्रकृति जीवात्मा को मदमस्त कर देती है, तब वह सुखदायक पिता से विमुख हो जाता है। इसलिये उसे कहा है कि तू प्रकृति के मद का त्याग कर और (हिन) वृद्धि को प्राप्त हो। तू तो प्रकृति से पृथक् है, चाहे तेरा शरीर प्रकृतिजन्य है। तूने निज आत्म-स्वरूप को भुला दिया है। आवयः= आवयतिः अतिकर्मा (सायण), आ+ वी (गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसन 'खादनेषु' (अदादिः) "नाम" पद प्रसिद्धार्थक। हिन=हि गतौ वृद्धो च (स्वादिः)।] [१. विहह्लः= वि +ह्लादी सुखे च (भ्वादिः ) । विहह्ल:= वि + ह्ल] यडङ्लुक्)+ ड: (औणादिक), डित्वात् टि लोपः। २. यथा "सुरिरसि वर्चोधा असि तनूपानो असि [जीवात्मा के लिये ] (अथर्व० २।११।४)।]