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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
सूक्त - शौनक्
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - निचृत्त्रिपदा गायत्री
सूक्तम् - अक्षिरोगभेषज सूक्त
आब॑यो॒ अना॑बयो॒ रस॑स्त उ॒ग्र आ॑बयो। आ ते॑ कर॒म्भम॑द्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठआव॑यो॒ इति॑ । अना॑बयो॒ इति॑। रस॑: । ते॒ । उ॒ग्र: । आ॒ब॒यो॒ इति॑ । आ । ते॒ । क॒र॒म्भम् । अ॒द्म॒सि॒ ॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आबयो अनाबयो रसस्त उग्र आबयो। आ ते करम्भमद्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठआवयो इति । अनाबयो इति। रस: । ते । उग्र: । आबयो इति । आ । ते । करम्भम् । अद्मसि ॥१६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(आवयः) [हे परमेश्वर ! तू प्रलयकाल में सृष्टि का] भक्षण१ कर लेता है, (अनावयः) [ और सृष्टिकाल में तू सृष्टि का] भक्षण नहीं करता। (आवयः) हे भक्षण करने वाले ! प्रलय काल में (ते) तेरा (उग्रः रसः) उद्गोर्ण आनन्दरस२ रहता है, (ते) तेरे ( करम्भम्) हाथ में दीप्त हुए उस रस२ का (आ अद्मसि) हम पूर्णतया भोग करते हैं।
टिप्पणी -
[सूक्त १६ में ४ मन्त्र हैं। समग्र सूक्त का अभिप्राय अत्यन्त अस्पष्ट है। कौशिक सूत्रों और तदनुसार सायणभाष्य में सूक्त का विनियोग अक्षिरोग, तद्भैषज्यरूप सर्षपतैल आदि में किया है, परन्तु समग्र सूक्त में इस का निर्देशक कोई पद नहीं। अपितु समग्र सूक्त अध्यात्म विषयप्रतिपादक हैं। प्रलय काल में परमेश्वर के हाथ में मानो उसका उग्र आनन्दरस अवशिष्ट रहता है, जिसका कि भक्षण अर्थात् आस्वादन मुक्तात्माएं करती हैं। वेद की वर्णन शैली कवितामय प्रायः होती है अतः उसके "कर" अर्थात् हाथ का वर्णन भी हुआ है। वस्तुतः वह "अपाणिपादो जवनो ग्रहीता" है]। [१. इसलिये परमेश्वर "अन्नाद" है। २. रसो वै सः। रसं ह्येष ल्ध्वाऽऽनन्दी भवति (ते० उप० ब्रह्मानन्द वल्ली ७)।]