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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - गर्भदृंहणम्, पृथिवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - गर्भदृंहण सूक्त
यथे॒यं पृ॑थि॒वी म॒ही दा॒धार॒ पर्व॑तान्गि॒रीन्। ए॒वा ते॑ ध्रियतां॒ गर्भो॒ अनु॒ सूतुं॒ सवि॑तवे ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । इ॒यम् । पृ॒थि॒वी । म॒ही । दा॒धार॑ । पर्व॑तान् । गि॒रीन् । ए॒व । ते॒ । ध्रि॒य॒ता॒म् । गर्भ॑: । अनु॑ । सूतु॑म्। सवि॑तवे ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वतान्गिरीन्। एवा ते ध्रियतां गर्भो अनु सूतुं सवितवे ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । इयम् । पृथिवी । मही । दाधार । पर्वतान् । गिरीन् । एव । ते । ध्रियताम् । गर्भ: । अनु । सूतुम्। सवितवे ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यथा) जैसे (इयम, मही, पृथिवी) इस महती पृथिवी ने (पर्वतान्, गिरीन्) पर्वतों और पर्वतीय प्रान्तों को [गर्भरूप में] (दाधार) धारण किया, (एवा ते, इत्यादि) इसी प्रकार [हे पत्नी !] तेरा गर्भ इत्यादि, पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[पर्वतों और गिरियों का पूर्वरूप पृथिवी के गर्भ में पिघला हुआ तरल पदार्थ होता है जिसे मैग्मा [magma] कहते हैं। यह पर्वतों और गिरियों का पूर्वरूप है, जो कि पर्वतों और गिरियों के रूप में पृथिवी को फाड कर बाहर आता है। "मैग्मा" कीचड़, धुआं, उष्णवाष्प, गैसें, लावा, तथा चट्टानी पदार्थों का समूह होता है।