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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अतिजगती
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
अ॒ग्नेरि॒वास्य॒ दह॑त एति शु॒ष्मिण॑ उ॒तेव॑ म॒त्तो वि॒लप॒न्नपा॑यति। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छतु॒ कं चि॑दव्र॒तस्तपु॑र्वधाय॒ नमो॑ अस्तु त॒क्मने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने:ऽइ॑व । अ॒स्य॒ । दह॑त: । ए॒ति॒। शु॒ष्मिण॑: । उ॒तऽइ॑व । म॒त्त: । वि॒ऽलप॑न् । अप॑ । अ॒य॒ति॒ । अ॒न्यम् । अ॒स्मत् । इ॒च्छ॒तु । कम् । चि॒त् । अ॒व्र॒त: । तपु॑:ऽवधाय । नम॑:। अ॒स्तु॒ । त॒क्मने॑ ॥२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेरिवास्य दहत एति शुष्मिण उतेव मत्तो विलपन्नपायति। अन्यमस्मदिच्छतु कं चिदव्रतस्तपुर्वधाय नमो अस्तु तक्मने ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने:ऽइव । अस्य । दहत: । एति। शुष्मिण: । उतऽइव । मत्त: । विऽलपन् । अप । अयति । अन्यम् । अस्मत् । इच्छतु । कम् । चित् । अव्रत: । तपु:ऽवधाय । नम:। अस्तु । तक्मने ॥२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(दहतः) दहन करने वाली (अग्ने: इव) अग्नि के दाह के सदृश, (अस्य शुष्मिणः) सुखा देने वाले इस [ज्वर का दाह] (एति) आता है [शरीर को व्याप्त कर लेता है] (उत) तथा (मत्तः इव) उन्मत्त व्यक्ति की तरह [ज्वरार्त्त व्यक्ति] (विलपन्) विविध प्रलाप करता हुआ (अप एति) इधर-उधर जाता-आता है। (अव्रतः) ज्वर कर्मरहित कर देने वाला है, यह ज्वर (अस्मद् अन्यम्) हम से भिन्न (कंचित् ) किसी को ( इच्छतु) चाहे, (तपुर्वधाय) शरीर को तपा देना जिस का घातुक आयुध है उस ( तक्मने ) पित्तज्वर के लिये (नमः अस्तु) नमः हो।
टिप्पणी -
[शुष्मिणः = शुष्म बलनाम (निघं० २।९)। पित्तज्वर शोषक है, और प्रबल वेग के साथ आक्रमण करता है। यह रक्त को सूखा देता है। तक्मने = तकि कृच्छ्रजीवने (भ्वादिः), यह जीवन को कष्टमय कर देता है। अग्रतः = कर्महीन कर देता है "व्रतम् कर्मनाम" (निघं० २।१)। अस्मत् = बुद्धि और कर्मों में पवित्र जीवन वाले (अथर्व० ६।१९।१-३)। अन्यम्= अपवित्र जीवन वाले को। 'नम:' के दो अर्थ अभिप्रेत हैं अन्न और वज्र (निरुक्त २७;२।२०)। पाच्य अन्न के सेवन और औषधवज्र से तक्मा नष्ट हो जाता है। विनियोगकारों ने सूक्त का देवता "यक्ष्मनाशन" कहा है। सम्भवतः दीर्घकाल का पित्तज्वर 'यक्ष्म" में परिणत हो जाता हो, रक्त के सुख जाने से कमजोरी के कारण यक्ष्म आक्रमण करता हो।]