Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 36

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - वैश्वनार सूक्त

    स विश्वा॒ प्रति॑ चाक्लृप ऋ॒तूंरुत्सृ॑जते व॒शी। य॒ज्ञस्य॒ वय॑ उत्ति॒रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । विश्वा॑ । प्रति॑ । च॒क्लृ॒पे॒ । ऋ॒तून् । उत् । सृ॒ज॒ते॒ । व॒शी । य॒ज्ञस्य॑ । वय॑: । उ॒त्ऽति॒रन् ॥३६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स विश्वा प्रति चाक्लृप ऋतूंरुत्सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । विश्वा । प्रति । चक्लृपे । ऋतून् । उत् । सृजते । वशी । यज्ञस्य । वय: । उत्ऽतिरन् ॥३६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (सः) जिसने (विश्वा) [विश्व की] सब वस्तुओं को अर्थात् (प्रति ) प्रत्येक वस्तु को (चाक्लृपे) पैदा किया, (वशी) जो वशयिता (ऋतून्) ऋतुओं का (उत्सृजते) उत्कर्ष रूप में सर्जन करता है, वह ( यज्ञस्य) हमारे जीवन यज्ञ की (वयः) आयु को (उत्तिरन्) बढ़ाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top