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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
स विश्वा॒ प्रति॑ चाक्लृप ऋ॒तूंरुत्सृ॑जते व॒शी। य॒ज्ञस्य॒ वय॑ उत्ति॒रन् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । विश्वा॑ । प्रति॑ । च॒क्लृ॒पे॒ । ऋ॒तून् । उत् । सृ॒ज॒ते॒ । व॒शी । य॒ज्ञस्य॑ । वय॑: । उ॒त्ऽति॒रन् ॥३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स विश्वा प्रति चाक्लृप ऋतूंरुत्सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । विश्वा । प्रति । चक्लृपे । ऋतून् । उत् । सृजते । वशी । यज्ञस्य । वय: । उत्ऽतिरन् ॥३६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सः) जिसने (विश्वा) [विश्व की] सब वस्तुओं को अर्थात् (प्रति ) प्रत्येक वस्तु को (चाक्लृपे) पैदा किया, (वशी) जो वशयिता (ऋतून्) ऋतुओं का (उत्सृजते) उत्कर्ष रूप में सर्जन करता है, वह ( यज्ञस्य) हमारे जीवन यज्ञ की (वयः) आयु को (उत्तिरन्) बढ़ाता है।
टिप्पणी -
[यदि जीवन यज्ञमय हो तो आयु बढ़ जाती है। "पुरुषो वाव यज्ञः" (छान्दोग्य उप० ३।१६)]