Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिरस्
देवता - श्येनः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - स्वस्तिवाचन सूक्त
श्ये॒नोऽसि॑ गाय॒त्रच्छ॑न्दा॒ अनु॒ त्वा र॑भे। स्व॒स्ति मा॒ सं व॑हा॒स्य य॒ज्ञस्यो॒दृचि॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश्ये॒न: । अ॒सि॒ । गा॒य॒त्रऽछ॑न्दा: । अनु॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । स्व॒स्ति । मा॒ । सम् । व॒ह॒ । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । उ॒त्ऽऋचि॑ । स्वाहा॑ ॥४८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्येनोऽसि गायत्रच्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठश्येन: । असि । गायत्रऽछन्दा: । अनु । त्वा । आ । रभे । स्वस्ति । मा । सम् । वह । अस्य । यज्ञस्य । उत्ऽऋचि । स्वाहा ॥४८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
[४८वां सूक्त भी ब्रह्मचर्यविषयक है। सूक्त द्वारा ब्रह्मचारी का उपनयन१ करके आचार्य उसे दण्डप्रदान करता है। कौशिक सूत्र ५६,३४)]। [हे परमेश्वर ! (श्येनः असि) श्येन पक्षी के सदृश तू शीघ्र गति वाला है, शीघ्र कार्यकारी है, (गायत्रच्छन्दाः) तू गायत्री छन्द वाला है, गायत्री छन्द द्वारा उपासनीय है, (अनु) तदनुसार (त्वा) तुझे (आरभे१) मैं ब्रह्मचारी उपासना में आलम्बन करता हूं। (अस्य यज्ञस्य ) इस ब्रह्मचर्यरूपी यज्ञ की (उदृचि) अन्तिम ऋचा तक अर्थात् वसुकाल के ब्रह्मचर्य की समाप्ति पर्यन्त, (मा) मुझे (स्वस्ति) कल्याण मार्ग से (संवह) सम्यक् प्रकार से ले चल। (स्वाहा) वसु ब्रह्मचर्य काल के प्रारम्भिक यज्ञ में तथा ब्रह्मचर्य काल की समाप्ति में यज्ञ में आहुतियां गायत्री मन्त्रों द्वारा मैं करता हूं।
टिप्पणी -
[भक्तिपूर्वक उपासित परमेश्वर शीघ्र सफलता प्रदान करता है, अतः वह शीघ्र कार्यकारी है। यथा "भक्तिविशेषादावर्जितः ईश्वरस्तमनुगृह्णाति अभिध्यानमात्रेण ! तदभिध्यानादपि योगिनः आसन्नतमः समाधिलाभः फलं च भवति" (ईश्वरप्रणिधानाद्वा योग १।२३, पर व्यास भाष्य)। उदृचि--वसुकाल में जितनी ऋचाएं पाठ्य हैं उन की समाप्ति हो जाने तक। गायत्रच्छन्दाः= वसुकाल के ब्रह्मचर्य काल में गायत्री जप पूर्वक परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये। इसी लिये कहा है "गायत्रं प्रात: सवनम" (छान्दोग्य ३।१६।१), प्रातः सवन है वसु ब्रह्मचर्य काल। इसी प्रकार "माध्यन्दिन सवन" अर्थात् रुद्र ब्रह्मचर्य काल में त्रिष्टुभ्-मन्त्र द्वारा परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये (छान्दोग्य ३।१६।३) तथा तृतोय सवन अर्थात् आदित्य ब्रह्मचर्य काल में जगती मन्त्र द्वारा परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये (छान्दोग्य ३।१६।५)। इस भावना के अनुसार सूक्त ४८ के मन्त्र २ और ३ में जगच्छन्दाः और त्रिष्टुप्छन्दाः का कथन हुआ है। सायणाचार्य ने भी मन्त्र २ में "तृतीय सवन", और मन्त्र ३ में "माध्यन्दिन सवन" की व्याख्या की है। त्वाऽऽरभे "त्वा" द्वारा परमेश्वर को कहा है, अतः उपासना में परमेश्वर को "आलम्बन रूप में वर्णित किया है। सूक्त ४७ के मन्त्र ३ में "सौधन्वनाः" द्वारा प्रणवध्यानी सद्गुरूओं का कथन हुआ है। वे ही सद्गुरु सूक्त ४८ के ब्रह्मचर्याश्रम में भी अभीष्ट हैं]। [१. उपनयन= उप (समीप में)+नयन (ले आना), अर्थात् निज आश्रम में से आना। यह आश्रम है ब्रह्मचर्याश्रम। २. त्या आरभे= त्वाम् आलभे, आलम्बनं करोमि, उपासनायां ध्याने च।]