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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 48

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
    सूक्त - यम देवता - वृषा छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - स्वस्तिवाचन सूक्त

    वृषा॑सि त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दा॒ अनु॒ त्वा र॑भे। स्व॒स्ति मा॒ सं व॑हा॒स्य य॒ज्ञस्यो॒दृचि॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । अ॒सि॒ । त्रि॒स्तुप्ऽछ॑न्दा: । अनु॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । स्व॒स्ति । मा॒ । सम् । व॒ह॒ । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । उ॒त्ऽऋचि॑ । स्वाहा॑ ॥४८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषासि त्रिष्टुप्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । असि । त्रिस्तुप्ऽछन्दा: । अनु । त्वा । आ । रभे । स्वस्ति । मा । सम् । वह । अस्य । यज्ञस्य । उत्ऽऋचि । स्वाहा ॥४८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    हे परमेश्वर ! (वृषा) सुखों की वर्षा करने वाला (असि) तू है, (त्रिष्टुष् छन्दाः) त्रिष्टुप् छन्द वाली ऋचा द्वारा उपासनीय है। (अनु) तदनुसार (त्वा) तुझे (आरभे) उपासना में मैं ब्रह्मचारी आलम्बन करता हूं। (अस्य) इस (यज्ञस्य) ब्रह्मचर्यरूपी यज्ञ की (उदृचि) अन्तिम ऋचा तक अर्थात्् रुद्रकाल के ब्रह्मचर्य में पठनीय ऋचाओं की समाप्ति तक, (मा) मुझे (स्वस्ति) कल्याग मार्ग से (सं वह) सम्यक् प्रकार से ले चल। (स्वाहा) रुद्रब्रह्मचर्य को समाप्ति में आहुतियां त्रिष्टुप् छन्द के मन्त्रों द्वारा करता हूं।

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